Saturday, December 27, 2008

राजधानी में भी हुआ तेलगी प्रकरण, प्रशासन तथा पुलिस बनी मूक दर्शक फर्जी स्टाम्प पेपरों पर हो रहे हैं पंजीकरण

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उत्तराखण्ड में एक और तेलगी प्रकरण प्रकाश में तब आया जब एक कृषि भूमि के पजींकरण विवाद क ी अदालती सुनवाई हुई। पंजीकरण में प्रयोग हुए हजारों रूपए के स्टाम्प पेपर फर्जी पाए गए हैं। वहीं मामले की पुलिस जांच को एक भाजपा नेता द्वारा भी प्रभावित किए जाने की जानकारी अधिकारिक सूत्रों ने दी है। उल्लेखनीय है कि बीती 24 फरवरी 2004 को रेसकोर्स निवासी रवि मित्तल पुत्र गोवर्धन दत्त ने राजेन्द्र सिंह विष्टï,राहुल अहलुवालिया तथा चन्द्र शेखर ममगांई के नाम नवादा क्षेत्र में 0.4211 हेक्टेयर भूमि का पंजीकरण कराया गया। यह मामला तब प्रकाश में आया जब सूरजभान, निवासी लुनिया मोहल्ला ने भी इसी भूमि को 20 फरवरी 2004 को रवि मित्तल से पूर्व में ही खरीदने का दावा कर डाला। उन्होने अपनी शिकायत में यह कहा कि उपरोक्त तीनों खरीदार राजेन्द्र सिंह विष्टï,राहुल अहलुवालिया तथा चन्द्र शेखर ममगांई ने उक्त भूमि का पंजीकरण फर्जी तरीके से कराया है। इस सम्बध में सूरजभान ने मामले की तह तक जाने की मंशा से सूचना के अधिकार के तहत कोषागार से पंजीकरण में प्रयोग हुए स्टाम्प के बारे में जानकारी चाही। इस मामले में जिला मुख्य कोषाधिकारी द्वारा 4 अक्टूवर 2008 को दी अधिकृत जानकारी में सनसनीखेज खुलासा करते हुए बताया कि उक्त तीनों व्यक्तियों जोकि पेशे से प्रापर्टी का धंधा करते हैं, को कोषागार देहरादून से 12 फरवरी 2004 को पांच सौ रूपए के कोई भी स्टाम्प पेपर नहीं दिए गए। उन्होने यह भी बताया कि इस दिन कोषागार से सिर्फ अन्य व्यक्तियों को 20 -20 हजार रूपए मूल्य के स्टाम्प पेपर निर्गत किए गए थे। हैरानी की बात तो यह है कि इन प्रापर्टी डीलरों द्वारा पंजीकरण के निबंधन में प्रयोग किए गए पांच-पांच सौ रूपए के 35 हजार रूपए मूल्य के स्टाम्प पेपर के उपर 12 फरवरी 2004 की मुहर लगी पायी गयी। जोकि कहीं भी कोषागार के अभिलेखों से मेल नहीं खा रहे हैं। स्टेम्प पेपरों के मामले में हुए फर्जीवाड़े के प्रकाश में आने के बाद शिकायतकर्ता सूरजभान ने जिलाधिकारी देहरादून को इस प्रकरण की बारीकी से जांच तथा दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही की शिकायत की। मामले का संज्ञान लेने हुए जिलाधिकारी देहरादून ने इस समूचे प्रकरण की जांच अतिरिक्त जिलाधिकारी वित्त विनोद कुमार सुमन को सौंप दी। मामले की जांच के बाद अतिरिक्त जिलाधिकारी ने अपनी जांच रिपोर्ट में मामले की पुष्टिï करते हुए कहा कि 12 फरवरी 2004 को सीधे कोषागार से स्टाम्प पेपर विक्रय नहीं किए गए। उन्होने जिलाधिकारी को प्रेषित इस जांच रिपोर्ट में कहा कि इसके विपरीत उप निबंधक के समक्ष पंजीकरण हेतु स्टाम्प पेपर कोषागार से निर्गत् हुए दर्शाए गए हैं। यह फर्जीवाड़ा यहीं समाप्त नहीं होता। जांच रिपोर्ट में इन स्टाम्प पेपरों के अलावा पंजीकरण में लगाए गए 44 हजार रूपए मूल्य के अन्य स्टाम्प पेपर भी प्रश्र चिन्ह लगा है। रिपोर्ट के अनुसार चार स्टाम्प पेपर विके्रता रमेश्वर दास, विपुल रस्तोगी , हेमन्त कुमार तथा डी आर बजाज द्वारा क्रय किए इन स्टाम्प पेपरों का कोई रिकार्ड भी जांच अधिकारी को नहीं मिल पाया। यही कारण है कि अपर जिलाधिकारी को अपनी जांच रिपोर्ट में लिखना पड़ा कि पत्रावली के साथ उक्त स्टाम्प बेन्डरों द्वारा विक्रय की गई दिनांक की,स्टाम्प रजिस्टर की छाया प्रति नहीं है। जिससे उनका सत्यापन किया जा सके। उक्त रजिस्टर अनुपलव्ध है अथवा बेन्डर द्वारा नष्टï किए गए हैं। हैरानी की बात यह है कि इस मामले में 18 सितम्बर 2008 को कोतवाली देहरादून में प्राथमिकी दर्ज किए जाने के चार महीने बाद पुलिस जांच कछुआ रफ्तार से चल रही है। सूत्रों का कहना है कि इस प्रकरण में प्रदेश भाजपा के एक नेता जो एक निगम के अध्यक्ष भी हैं के प्रभाव के चलते जांच का यह हश्र हुआ है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पक्के साक्ष्यों के बावजूद पुलिस ने अभी तक जांंच के नाम पर महज खानी पूरी ही करती नजर आ रही है। कुछ समय पहले प्राथमिकी में दर्ज तीनों व्यक्तियों में से पुलिस ने दो व्यक्तियों को हिरासत में लिया लेकिन एक को कोतवाली से ही छोड़ दिया अन्य को मात्र धारा 420 के तहत गिरफ्तार दिखाकर उसी वक्त जमानत पर छोड़ दिया। पुलिस की इस कार्यवाही से क्षुव्ध शिकायतकर्ता सूरजभान ने पुलिस पर विश्वास न होने का आरोप लगाया तब कहीं जाकर पुलिस ने जांच अधिकारी को बदल डाला। पुलिस के जांच अधिकारी के बदले जाने के बाद भी मामला जस का तस है। उल्लेखनीय है कि यह तो एक प्रकरण मात्र है जो अभी प्रकाश में आया है और न जाने कितने तेलगी इस तरह के अन्य कई प्रकरणों में लिप्त होंगे यह कहा नहीं जा सकता लेकिन इस प्रकरण से तो यह साफ ही हो गया है कि उत्तराखण्ड में तेलगियों ने पांव पसार दिए हैं। जबकि अधिकारिक जानकारी के अनुसार तेलगी प्रकरण के बाद देश के अन्य राज्यों की तरह इस राज्य के तमाम पंजीकरण अधिकारियों को यह निर्देश दिए गए थे कि वे किसी भी पंजीकरण के समय स्टांम्प पेपरों की बारीकी से जांच करें लेकिन इस मामले में हुई लापरवाही ने प्रशासन की पोल खोल कर रख दी है कि वह सरकारी आदेशों के प्रति कितने सजग हैं।

लालबत्ती को लेकर भाजपा में घमासान के आसार

लालबत्ती इच्छाधारियों ने खण्डूड़ी पर दबाव बनाया

विपक्ष को किस मुंह से आईना दिखायेगी भाजपा

 भारतीय जनता पार्टी के अन्दर एक बार फिर से घमासान के आसार पैदा हो गये हैं। लालबत्ती की लाइन में खड़े विधायक व पार्टी नेता तुरंत दायित्व के बोझ तले दबाने को उतावले हैं तो पार्टी के पुराने निष्ठावान कार्यकर्ता लालबत्तियों के मामले में छत्तीसगढ़ फार्मूले को अपनाये जाने पर जोर दे रहे हैं। हालत की गम्भीरता का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दोनों ही पक्ष इस मामले में आलाकमान के दरवाजे पर गुहार भी लगा चुके हैं। असन्तुष्टों की हलचल के थमने के बाद इस प्रकरण में भाजपा में सियासी तूफान के से हालात बन गये हैं। 7 मार्च 2008 को सूबे की कमान संभालने वाले पूर्व केन्द्रीय मंत्री व लोकसभा सांसद भुवन चन्द्र खण्डूड़ी के लिए पौने दो वर्ष में हालात कभी सामान्य नहीं रहे। मित्र विपक्ष से ग्रस्त विपक्ष बनी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस कभी भी उन्हें परेशान नहीं कर पायी, किन्तु अपनी ार्टी के ही नेताओं और विधायकों ने उन्हें आराम ही नहीं करने दिया। मुख्यमंत्री पद की शपथ पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रकाश पंत के साथ लेने के बाद विधायकों ने इतनी लाबिंग करी कि मंत्रीमण्डल के अन्य 10 सदस्यों को शपथ दिलाने में ही 20 दिन लग गये। यह खण्डूड़ी का ही कौशल था कि लगातार दूसरे वर्ष सरप्लस बजट विधानसभा में पेश किया गया। पार्टी के नेताओं और विधायकों ने मुख्यमंत्री के निकटवर्तियों को निशाने पर लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु यह निकटवर्तियों की रणनीति व खण्डूड़ी का भाग्य ही था कि वे कठिन से कठिन परिस्थितियों से भी पार पा गये। खेमाबंदी कर रहे विधायक तो खण्डूड़ी को एक दिन भी मुख्यमंत्री नहीं रहने देना चाह रहे थे, किन्तु एक के बाद एक चुनाव में मिली जीत व आलाकमान की फटकार ने उन्हें चुप रहने पर तात्कालिक मौर पर विवश किया। असंतुष्ट विधायकों ने पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी के नेतृत्व में दिल्ली दरबार में दस्तक दी, तो एक बार संख्या बल के हिसाब से लगा कि खण्डूड़ी को दिक्कत हो सकती है, किन्तु दिल्ली दरबार की घुडक़ी व कोश्यारी को वाया राज्यसभा से दिल्ली भेज असन्तुष्ट मुहिम को करारा झटका दिया गया। खण्डूड़ी ने पार्टी के लगभग 45 नेताओं नेताओं को दायित्व के बोझ से नवाजा, तो विधायकों की महत्वकांक्षा फिर हिलौरे मारने लगी। राजनीतिक मजबूरी भी थी कि किसी तरह असन्तुष्टों के पर कतरे जांय या दायित्व दिये जायं। दायित्व देने के लिए 28 पदों को लाभ के दायरे से बाहर लाया गया, किन्तु मलाईदार माल न मिलते देख विधायकों ने इस पैरवी ही नहीं की। लगातार आज कल होता देख असन्तुष्ट विधायकों ने नई खेमाबन्दी कर ली। प्रदेश भाजपा प्रभारी के बीते शनिवार को देहरादून दौरे के दौरान पद न मिलने का रोना भी रोया गया। पिछली कांग्रेस और अब मिलाकर लगभग 46 पद लाभ के दायरे से बाहर हैं। विधायक इन पदों पर अपना स्वाथाविक हक जता रहे हैं। विधानसभा में भाजपा के इस वक्त 36 विधायक हैं। कोश्यारी के विधानसभा से इस्तीफा देने के कारण कपकोट सीट खाली हो गयी है। तीन निर्दलीय व उक्रांद के तीन विधायकों को मिलाकर संख्या 42 हो जाती है, इनमें मनोनीत विधायक केरन हिल्टन भी शामिल हैं। मुख्यमंत्री सहित 12 सदस्य मन्त्रिमण्डल में हैं, तो विधानसभाध्यक्ष हरबंस कपूर व उपाध्यक्ष विजय बड़थ्वाल भी संवैधानिक पदों पर आरूढ हैं। इस प्रकार विधानसभा में 22 विधायक ऐसे हैं। जिनके पास कोई पद नहीं है, किन्तु पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ता यह साफ कहते हैं कि विधायक संवैधानिक व्यवस्था का प्रमुख अंग है। और विधायक का टिकट देते हुए पार्टी ने किसी विधायक से यह वादा नहीं किया गया था कि उन्हें पद से नवाजा जायेगा। पुराने व निष्ठावान कार्यकर्ता पार्टी के अन्दर छत्तीसगढ़ फार्मूले को अपनाने पर जोर दे रहे हैं, जहां पार्टी में जीते या हारे प्रत्याशियों को कोई दायित्व न दिया जाना तय किया गया है। इनका यह भी कहना है कि भाजपा ने पूरा चुनाव अभियान कांग्रेस द्वारा बांटी लालबत्तियों और भ्रष्टाचार के विरूद्ध चलाया और लालबत्तियां बांटने के मामले में कांग्रेस की राह चले, तो जनता के बीच क्या मुंह लेकर जायेगे। अगले कुछ माह में ही लोकसभा चुनाव के साथ प्रदेश सरकार भी दो वर्ष का कार्यकाल पूरा कर लेगी, ऐसे में लोकसभा चुनाव से पहले लालबत्ती वितरण से जनता के बीच विपरीत संदेश जाना तय है। 

Monday, December 1, 2008

जल्द ही प्रदेश का अपना एटीस व आतंकवादी निरोधक कानून



राजेन्द्र जोशी
आगामी एक साल बाद आयोजित होने वाले महाकुंभ से पहले प्रदेश सरकार ने आतंकवादी गतिविधियों से लडऩे के लिए सख्त कानून बनाने की कवायद शुरू कर दी है। इसी क्रम में प्रदेश सरकार के आला अधिकारी तमाम राज्यों में बने इस कानून के अध्ययन के साथ ही केन्द्रीय गृह मंत्रालय से भी इस बावत जानकारी एकत्रित कर रहा है। देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद राज्य सरकार को भी आतंकवाद से निपटने के लिए एक अदद आतंवादी कानून की दरकार है। इसी क्रम में प्रदेश सरकार यह भी चाहती है अब जो कानून बने वह इतना कठोर हो कि आतंवादी किसी भी कीमत पर बच न पाए। सरकार का मानना है कि इस राज्य में हिन्दुओं के पवित्र स्थलों के साथ ही मुस्लिम समुदाय तथा सिक्खों के भी पवित्र स्थल तो हैं ही साथ ही यहां कई पर्यटन क्षेत्र भी है जंहां प्रत्येक साल करोड़ों तीर्थयात्री दर्शनों के लिए आते रहे हैं। जिन्हे आतंकवादी अपना निशाना बना सकते हैं। लिहाजा अब इन्हे ऐसे ही नहीं छोड़ा जा सकता है। वैसे प्रदेश सरकार ने फौरी तौर पर इन स्थानों पर गुप्तचरों की व्यवस्था के साथ ही इन क्षेत्रो ंमें सशस्त्र बलों तक को निगरानी पर लगा दिया है। प्रदेश सरकार ने उम्मीद जताई है कि आगामी वर्ष 2010 में महाकुंभ के दौरान लगभग 10 करोड़ श्रद्घालुओं के आने की उम्मीद है। ऐसे में आतंकवादी घटनाओं को देखते हुए सरकार चुप नहीं बैठ सकती। हांलांकि प्रदेश सरकार का यह भी मानना है कि अभी तक राज्य में आतंवाद की जड़े नहीं हैं लेकिन सुरक्षा पहले ही कर दी जाए तो बेहतर होगा। राज्य सरकार चाहती है कि श्रद्घालुओ ंकी सुरक्षा और कड़ी होनी चाहिए। सरकार ने हरिद्वार के अलावा भारतीय सैन्य अकादमी, भारतीय प्रशासनिक अकादमी, सर्वे आफ इंडिया, सहित तेल एवं प्राकृतिक तेल एव गैस आयोग आदि की सुरक्षा और कड़ी करने का निर्णय भी लिया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रदेश सरकार काफी पहले से ही आतंकवाद के खिलाफ क ठोर कानून बनाने पर विचार कर रही थी लेकिन केन्द्र सरकार की ओर से उसे हरी झंडी़ नही मिल पा रही हैँ मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले के बाद अब केन्द्र सरकार को भी कठोर कानून की याद आयी है तो राज्य सरकार ने भी इस पर होमवर्क शुरू कर दिया है। केन्द्र से हरी झंडी मिलने के बाद राज्य सरकार अपनी आतंकवादी निरोधक दस्ता एटीएस बनाने की ओर चल पड़ी है। जिसकी रूपरेखा े कुछ ही दिनों में तैयार होने की उम्मीद है। इस मामले पर मुख्यमंत्री भी काफी सक्रियता से होमवर्क में जुट गए हैं कि इसे जल्द से जल्द तैयार कराया जाय, और महांकुंभ से पहले राज्य सरकार इसका गठन करें।

Thursday, November 27, 2008

आतंकवाद पर ओछी राजनीति निंदनीय

राजेन्द्र जोशी
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में बुधवार की रात आतंकवाद का जो तांडव देखने को मिला, उसके बाद तो राजनेताओं और नौकरशाहों के सिर शर्म से झुक जाने चाहिए। लेकिन आज फिर वही खोखली राजनीति से प्रेरित बयानबाजी ही सामने आई। देश में आतंकी हमले होते हैं हमले में कई बेगुनाह मारे जाते हैं । मरने वालों के परिजनों को मुआवजा देकर सरकार फोर्मेलिटी निभा देती है । विस्फोटों की जांच के लिए जांच एजेंसियां गठित कर दी जाती हैं और जब तक ये जांच एजेंसियां जांच करती है । कई और धमाके हो जाते हैं । सभी घटनाओं के बाद प्रारंभ की गईं जांचें या तो कभी पूरी नहीं हुईं या फिर वे असली अपराधियों की गर्दन तक पहुंचने के बजाए निरपराध लोगों की धरपकड़ करने, उन्हें कानूनी पेचीदिगियों में उलझाने या उन्हें परेशान करने तक सीमित होकर रह गईं। अगर कोई असली अपराधी पकडा भी गया तो बजाये उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देने के उस पर राजनीती शुरू हो जाती है । जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है अफज़़ल गुरू । इतने सालों की आतंकी यातनाओं के बाद भी केंद्र सरकार अपने खुफिया तंत्र भौतिक और तकनीकी रूप से मजबूत करने का काम तो कर ही सकती थी ताकि भले ही आतंकवादियों के नापाक मंसूबों को पूरी तरह रोका नहीं भी जा सके लेकिन कम से कम इन पर इतना अंकुश तो लगे के आम आदमी को इतना भरोसा हो कि सरकारें आतंकवाद के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रहीं हैं । पिछले दो सालों में देश के अलग अलग शहरों में आतंकवादी एक के बाद एक विस्फोट कर रहे हैं और सैकड़ों लोगों की जानें बेवजह जा रही हैं कई घर उजड़ जाते हैं । कितनी गोदें सूनी हो जाती हैं पर किसी के पास इन्हें रोकने या कम करने का कोई उपाय नहीं है। हर हमले के बाद सता के गलियारों में बैठे नेता मीडिया के समक्ष मरने वालों के परिजनों के लिए अपनी सांत्वना व्यक्त करते हैं और खोखली राजनीती से प्रेरित मुआवजे की घोषणा करते हैं । घटना स्थल के दौरों और आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है केंद्र और राज्य सरकारें एक दूसरे की नाकामी पर बयानबाजी करते नजऱ आते हैं । लेकिन इन बयानों से आतंकवाद के खिलाफ कोई भी कार्यवाही कर पाने में नेता स्वयं को ही असमर्थ सिद्ध करते हैं । आतंकी वारदात के बाद विपक्ष केंद्र सरकार पर असमर्थता के आरोप लगाता है और केंद्र सरकार निराशा में पैर पटकती नजर आती है। इतना ही नहीं दोनों ही अपने मुह मियाँ मि_ू बनने की कोशित में लगे रहते हैं और यहाँ कहने में जऱा भी शर्म महसूस नहीं करते कि आतंकवाद के खिलाफ सफलतापूर्वक कार्रवाई उन्हीं के द्वारा की गई है। देश के हर नागरिक को हर तरह की हिंसा और अन्याय से संरक्षण मिलने का अधिकार है । लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें आतंकवाद से निपटने में पूरी तरह से नपुंसक साबित हो रही हैं। आज आम आदमी की सबसे बड़ी चिंता स्वयं और अपने परिजनों की सुरक्षा को लेकर है। विकास तो दूर की बात है । आज कोई भी व्यक्ति विश्वास से यह कह पाने में कतराता है कि सुबह घर से निकलने के बाद शाम को वह सही सलामत घर पहुँच भी जायेगा या नहीं । आतंकवादी धर्म के नाम पर देश की फिजा बिगाडऩे को तुले हुए हैं दूसरी और हमारे देश के नेतागण धर्म और जात के नाम पर राजनीति करने ने नहीं चूक रहे। देश पहले ही धर्मवाद और क्षेत्रवाद के आतंरिक कलह से जूझ रहा है । ऐसे में अगर राजनेता अपनी खोखली राजनीति से बाज नहीं आते और इसी तरह से शासन चलाते हैं तो वे भारत को एक सूत्र में नहीं पिरो सकते । और उसे विकास की राह पर नहीं ले जा सकते । आज समय की जरूरत है कि सरकार और विपक्ष दोनों वक्त की नजाकत को समझें और राज्य सरकारों से बेहतर तालमेल बना राजनीति से परे कुशल शासन दे । जिसकी देश की जनता आशा रखती है

Tuesday, November 25, 2008

अभिनव भारत पर आरोप निराधार-हिमानी सावरकर

imageअभिनव भारत की अध्यक्ष हिमानी सावरकर

हिमानी सावरकर उस संस्था अभिनव भारत की अध्यक्ष हैं जिसके ऊपर मालेगांव विस्फोट की योजना बनाने का आरोप लग रहा है. वे वीर सावरकर के छोटे भाई नारायण दामोदर सावरकर की पुत्रबधू और नाथूराम गोड्से के छोटे भाई गोपाल गोड्से की पुत्री हैं. अभिनव भारत के साथ-साथ वे हिन्दू महासभा की अध्यक्ष भी हैं. वे दिल्ली आयीं थी, इसी यात्रा के दौरान हमने उनसे मिलकर मालेगांव विस्फोट के सिलसिले में लंबी बातचीत की. प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश-

अभिनव भारत के बारे में बताईये?
अभिनव भारत की स्थापना स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने १९०४ में की थी. लेकिन १९५२ में उन्होंने खुद इस संस्था को विसर्जित कर दिया था. उनका कहना था कि स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य पूरा हो गया अब इस संस्था की जरूरत नहीं है. लेकिन इधर पिछले कुछ सालों से जिस तरह से देश पर आतंकवादी हमले बढ़ रहे हैं उसने हिन्दू समाज के सामने एक नये तरह की चुनौती पेश कर दी है. इसको देखते हुए इस संस्था को २००६ में पुनः गठित किया गया. इसी साल अप्रैल में मैं इस संस्था की अध्यक्ष बनी.

और आपके आते ही धमाके शुरू हो गये?
हमारे ऊपर जो आरोप लगाये गये हैं उनमें कोई सच्चाई नहीं है. सरासर झूठ है. हकीकत में कहीं कुछ है ही नहीं. एक महीने से एटीएस तरह-तरह से जांच कर रही है, पकड़े गये लोगों का नार्को करके सच सामने लाने का दावा कर रही है. अब तक क्या निकला है? आज एटीएस एक दावा करती है और अगले ही दिन उसका खण्डन करना पड़ता है. पहली बात तो यह है कि नार्को टेस्ट प्रमाणित ही नहीं मानी जाती. अगर ऐसा होता तो तेलगी के नार्कों के आधार पर अब तक शरद पवार और भुजबल को अभियुक्त होना चाहिए था. 

लेकिन विस्फोट के सिलसिले में आप लोगों ने बैठक की या नहीं?
ऐसी कोई मीटिंग नहीं हुई है. अगर हम एटीएस के दावों को ही सही मान लें तो क्या मीटिंग करना कोई अपराध है? और मीटिंग हुई तो क्या लोगों ने वहां बम विस्फोट की प्लानिंग की? उनके सारे आरोपों का आधार नार्को टेस्ट है. बेहोश आदमी क्या बोलता है, इसको प्रमाण मानकर वे लगातार आरोप लगा रहे हैं. 

आपको समझना होगा कि यह सारा काम हिन्दू समाज को अंदर से तोड़ने के लिए किया जा रहा है. इसकी शुरूआत शंकराचार्य की गिरफ्तारी से होती है. आप देखिए उसके बाद कितने हिन्दू सन्तों को किस-किस तरह से परेशान किया जा रहा है. शंकराचार्य के बाद रामदेव बाबा, फिर तोड़कर महाराज, फिर संत आशाराम और अब श्री श्री रविशंकर पर भी आरोप लगाये जा रहे हैं. क्या यह सब देखकर भी समझ में नहीं आता कि ये सारे काम किसके इशारे पर और क्यों किये जा रहे हैं? हिन्दू संत अब शिविर नहीं ले सकते. श्री श्री रविशंकर के बारे में कहा जा रहा है वे दिन में शिविर लेते हैं और रात में दूसरे प्रकार का प्रशिक्षण देते हैं. जबकि इसी साल १५ अगस्त को बंगलौर में खुलेआम पाकिस्तान समर्थकों ने २५ हजार लोगों की फौज बनाकर परेड कराई लेकिन उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं हुई.  

आपकी नजर में इसके लिए दोषी कौन है?
कांग्रेस ही एकमात्र दोषी है. वह नहीं चाहती कि इस देश के हिन्दू एक हों. वह सालों से बांटों और राज करो की नीति पर काम कर रही है. यह सब जो हो रहा है वह अपनी नाकामी को छिपाने के लिए इस तरह के षण्यंत्र को अंजाम दे रही है. 

साध्वी प्रज्ञा आपसे जुड़ी हुई हैं?
हां, एकाध सभाओं में वे शामिल हुई हैं. लेकिन इसका मतलब आप क्या निकालना चाहते हैं?

कर्नल पुरोहित, या समीर कुलकर्णी?
नहीं. कर्नल प्रसाद पुरोहित एक सरकारी अधिकारी हैं. वे सरकारी अधिकारी रहते हुए किसी संस्था के सदस्य कैसे हो सकते हैं? हां, वे सेना के खुफिया विभाग में है. वे हमसे संपर्क में थे तो क्या काम कर रहे थे यह एटीएस कैसे निर्धारित कर सकती है? हो सकता है वे अपनी सेवाओं के तहत ही हमसे संपर्क में आये हों. सारी दुनिया यह देख रही है और हंस रही है कि हम अपने ही सेना के साथ क्या कर रहे हैं. अगर सेना में इस बात को लेकर विद्रोह हो गया तो क्या होगा? 
कर्नल पुरोहित पर बम बनाने का आरोप लगा रहे हैं. क्या आपको पता है कि सेना में बम बनाने की शिक्षा ही नहीं दी जाती. कह रहे हैं कि पुरोहित ६० किलो आरडीएक्स लेकर गये सूटकेस में. क्या यह संभव है? वहां एक एक ग्राम का हिसाब होता है. ६० किलो आरडीएक्स उठाकर ले जाना कोई आलू प्याज उठाकर ले जाना नहीं है. ६० किलो आरडीएक्स को सुरक्षित रूप से एक से दूसरे जगह पहुंचाने के लिए रेलवे के दो वैगन जितनी जगह चाहिए.

मैं अभी समीर कुलकर्णी से मिली थी खिड़की न्यायालय में. मैं देखकर दंग रह गयी कि उनके साथ कितनी मारपीट की जा रही है. आठ दिन तक समीर कुलकर्णी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया. कर्नल पुरोहित का १६ किलो और समीर कुलकर्णी का वजन २० किलो घट गया है. क्या इन बातों की जानकारी आपको है? आपको वही पता है जो एटीएस बता रही है. आखिर इतना जुल्म इन लोगों पर किस बात के लिए किया जा रहा है. इसीलिए न कि एटीएस जो कहती है वे इसे स्वीकार कर लें. और करकरे कहते हैं कि वहां पिटाई नहीं हो रही है. एटीएस औरंगजेब से ज्यादा क्रूर व्यवहार कर रही है.

एटीएस ने आपको भी संपर्क किया है?
अभी तक नहीं किया है. आगे करेगी तो पता नहीं. 

केन्द्र सरकार का हस्तक्षेप नहीं है?
केन्द्र में बैठी कांग्रेसी सरकार को इससे तो फायदा है. वह तो हिन्दू आतंकवाद के नये दर्शन से ही खुश है. वह क्यों हस्तक्षेप करेगी. 

आपकी किसी से मुलाकात हुई है?
हम केन्द्र सरकार में कुछ लोगों से मिलने की कोशिश कर रहे हैं और उनसे मिलकर सारी बातें साफ तौर पर उनके सामने रखेंगे. आगे वे जैसा करना चाहें. 

आपकी संस्था को प्रतिबंधित किया जा सकता है?
हमें इस बात की कोई चिंता नहीं है. सरकार को अगर यही उचित लगता है तो वह कर सकती है.

और हिन्दू धर्म में इस तरह हिंसा को स्थापित करना कहां तक जायज है?
हमारा हिंसा में कोई विश्वास नहीं है. हम निरपराध लोगों को नुकसान पहुंचाने के पक्ष में कतई नहीं हैं. लेकिन हम इतना जरूर कहते हैं कि अगर आप हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश करोगे तो हिन्दू समाज भी चुप नहीं बैठेगा. अगर हिन्दू समाज पर कोई अन्याय करेगा तो हम ईंट का जवाब पत्थर से भी देना जानते हैं. जो हमारे ऊपर मारने के लिए हाथ उठायेंगे तो हम उसका हाथ तो पकड़ेगें. 

क्या कुछ हिन्दूवादी नेताओं से आपकी बात हुई है?
हमारी जिनसे भी बात हुई है वे सब यही कह रहे हैं कि यह जो कुछ हो रहा है वह गलत है. सब एक पार्टी विशेष के इशारों पर हो रहा है और हम सब इस मामले एक होकर संघर्ष करेंगे.

संघर्ष से आपका आशय?
अहिंसक संघर्ष और क्या? और हम क्या कर सकते हैं. जो लोकतांत्रिक तरीके हैं हम उनके ही जरिए संघर्ष करेंगे.

आप भगवा राजनीति की बात कर रही हैं. लेकिन इसी भगवा राजनीति में राज ठाकरे भी हैं.
हम हिन्दवी राजनीति में जातिवाद, क्षेत्रवाद को समर्थन नहीं करते हैं.

आपके भगवा राजनीति में धार्मिक अल्पसंख्यकों की जगह कहां है?
वीर सावरकर ने कभी यह नहीं कहा था कि गैर-हिन्दुओं को मारो काटो या देश से निकाल दो. उन्होंने कहा था कि इस देश में जिनको रहना है वह हिन्दू राष्ट्र का अंग होकर रहेगा. यहां मैं हिन्दू को धर्मवाचक नहीं बल्कि राष्ट्रवाचक संज्ञा के रूप में रख रही हूं. कानून की नजर में सबको एक समान होना होगा, सबकी निष्ठा यहां होगी.

अभिनव भारत को लेकर क्या योजनाएं हैं?
अभिनव भारत राजनीति नहीं करेगा. हम तरूणों को अभिनव भारत में शािमल करेंगे. उनके जरिए यह संदेश लोगों तक ले जाएंगे कि यह देश हमारा है और हम इसपर होनेवाले किसी हमले को स्वीकार नहीं करेंगे और हर प्रकार के लोकतांत्रिक तरीके से इसका जवाब देंगे. वीर सावरकर का जो मंत्र है- राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैनिकीकरण. हम उस आदर्श को स्थापित करने के लिए काम करेंगे.

(विस्फोट डाट काम के सौजन्य से)

Wednesday, November 19, 2008

हिन्दू आतंकवाद का अस्तित्व साबित करने का अभियान

पटकथा जैसा परीक्षण: डा. दिलीप अग्निहोत्रीं  
मालेगांव बम विस्फोट की सच्चाई तक पहुंचने के लिए निष्पक्ष जाॅंच की आवष्यकता है, लेकिन आतंकी मसले पर सरकार की इतनी सक्रियता प्रथम दृष्टया संदेह उत्पन्न करती है। केन्द्र की संप्रग सरकार हो या महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार आतंकवाद के खिलाफ ऐसी तेजी तेजी दिखलाना तो इनकी फितरत नहीं थी। इनके कार्यकाल में आतंकी हमलों का अंतहीन सिलसिला चलता रहा, बार-बार दोहराने के बाद भी इसके कठोर कदमों को उठते कभी नहीं देखा गया। यहां तक कि संदिग्धों से ज्यादा पूॅछताछ भी इन्हें मंजूर नहीं थी, वर्ग विषेष पर कोई संदेह ना करे इसलिए संदिग्धों के प्रति बहुत उदारता का व्यवहार किया गया। जिसे सर्वाेच्च न्यायालय ने बेगुनाहों की हत्या में शामिल होने मौत की सजा दी, वह धर्मनिरपेक्षता की प्रतीक बनकर प्रतिष्ठित है, आसाम, बंगाल में विदेषी इस्लामी आतंकी गिरफ्तार किए गए, लेकिन पुलिस बलों ने पता नहीं किस दबाव में सामान्य तहकीकात भी नहीं की और वह मुक्त कर दिऐ गए। सैकड़ों विस्फोेट हजारों निदोष व्यक्तियों की मौत के बाद भी आज तक किसी संदिग्ध आरोपी का नार्को टेस्ट नहीं लिया गया। उनके लिए यह आष्वासन पूरी दृढ़ता से अमल में था कि पोटा नहीं लगाया जाऐगा। मालेगाॅव विस्फोट में साध्वी प्रज्ञा का नाम आने पर सरकार नींद से जागी, उसके खिलाफ कोई भी सबूत नहीं था, लेकिन सरकार व जाॅच एजेन्सियो के अस्वभाविक तौर तरीकों से यह संदेष दिया गया कि देष हिन्दू आतंकवाद की चपेट में है। हिन्दू धर्म का उदय कब हुआ, इसका समय कोई नहीं बता सकता, लेकिन पहली बार हिन्दू आतंकवाद शब्द सुनाई पड़ा। जबकि विषाल हिन्दू मान्यताओं में जिहाद जैसी कोई कल्पना नहीं की गई। लेकिन बिडम्बना यह है कि हिन्दू आतंकवाद का अस्तित्व साबित करने का अभियान चलाया जा रहा है। अन्यथा साध्वी का नारको टेस्ट आदि कराने का फैसला क्यों लिया जाता। यह भी संयोग था कि जिस समय साध्वी और उनसे किसी भी रुप में परिचित लोगों के नारकोटेस्ट का सिलसिला चल रहा था, उसी समाय लखनऊ में आयोजित एक राष्ट्रीय कार्यषाला में ओहियो (अमेरिका) में कार्यरत डा. आ.के.मिश्र ने दावे के साथ कह रहे थे कि नारको टेस्ट यातना और नाटक के अलावा कुछ नहीं है। यह वैज्ञानिक व कानूनी नहीं है। यदि परीक्षण सुनिष्चित विज्ञान पर आधारित नहीं हैं। यदि परीक्षण सुनिष्चित विज्ञान पर आधारित नहीं है, तब निष्कर्ष नहीं दिया जाना चाहिए। केवल अनुमान के के आधार पर चलने वाले नारकोटेस्ट से इस प्रकार निष्कर्ष निकाले व सार्वजनिक किये जाते है, जैसे यही पूर्ण व अंतिम सच है। यह कितना वैज्ञानिक है, वह साध्वी मामले में देखा जा सकता है, चार बार उनका नारकोटेस्ट हुआ, उसमें कोई भी तथ्य नहीं मिला। इसका वैज्ञानिक कारण यह बताया गया कि उनकी योगषक्ति के सामने यह तकनीक काम नहीं कर रही है। इस आधार पर तो योगषक्ति होने पर अलग-अलग परिणाम दिखाई देंगे। साध्वी प्रज्ञा के आवास में तलाषी के दौरान भी कुछ नहीं मिला था। केवल संदेह के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि वही मालेगांव विस्फोट की मास्टर माइंड थी। विस्फोट के लिए आर.डी.एक्स कहाॅं से मिला ? तब सैन्य अधिकारी पर संदेह हुआ, संदेह का आधार यह था कि वह साध्वी को जानता था। फिर क्या था यह श्रंृखला आगे बढ़ी यह सैन्य अधिकारी दूसरे पूर्व सैन्य अधिकारी से परिचित था, इस आधार पर यह भी संदिग्ध आतंकी बताया गया। सैन्य अधिकारी के तीन दिनों तक चले नारको व अन्य टेस्टो से कोई ठोस जानकारी नहीं मिला, लेकिन साध्वी की जगह ले. कर्नल पुरोहित को मालेगाॅंव विस्फोट का मास्टर माइंड घोषित कर दिया गया। फिर एक अन्य धर्मगुरु को मास्टर माइंड बताया गया। कहा गया कि उनका ‘सनसनीखेज’ वीडियो है, जिसमें वह देष को तोड़ने, नफरत फैलाने की बात कर रहे हैं। यदि जम्मू-कष्मीर के हिन्दुओं की त्रासदी बयान करने से ऐसे आरोप लगते हैं, तो यह मानना पड़ेगा कि वह पाकिस्तान के समर्थन में नारे बुलंद करने वाले देष की एकता-अखण्डता मजबूत करने और सौहार्द फैलाने का काम कर रहे हैं। आयुषी तलवार मामले में पुलिस और इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका को याद कीजिए, निष्कर्ष इनके पास पहले से मौजूद था, केवल फिल्मी अंदाज में कहानी व पटकथा का संयोजन किया जा रहा था। इलेक्ट्रानिक मीडिया के संवाददाता हवा में तीर चलाते जासूस की मानंद चीख-चीख कर खुलासा करने का दावा कर रहे थे। वहीं पुलिस ने इनकी मेहनत भी नहीं की, पुलिस महानिरीक्षक जैसा महत्वपूर्ण व वरिष्ठ अधिकारी इस प्रकार बयान दे रहा था, जैसे आॅंखों देखी तस्वीर सामने ला रहे हैं। गमो के बोझ में दबा वह पिता शायद कुछ कहने की स्थिति में नहीं था और जिस बच्ची पर आरोप लगाया गया वह अपनी बात कहने के लिए दुनिया में मौजूद नहीं थी। पता नहीं उक्त आई.जी. ने अपने लंबे कैरियर में कितनी घटनाओं की जाॅंच की होगी ? इस प्रकरण को साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी से जोड़कर देखिए। यहां भी केवल शक है कि मालेगांव बम बिस्फोट में उनका हाथ था। ये बात अलग है कि इस शक को को कोई आधार फिलहाल नहीं है। लेकिन महाराष्ट्र पुलिस और कई इलेक्ट्रानिक चैनल निष्कर्ष निकाल चुके है। कहाॅं-कब आतंकी प्रषिक्षण षिविर चला फिर कैसे बमविस्फोट को अंजाम दिया गया, इसकी पूरी कहानी तैयार है। साध्वी प्रज्ञा के आवास पर छापा मारा गया, प्रायः सभी सामान ऐसा ही था जो किसी हिन्दू साध्वी के पास हो सकता है, लेकिन आतंकी सरगना बताने के शक का क्या किया जाय ? एक इलेक्ट्रानिक चैनल ने आपत्तिजनक वस्तु बरामद होने का खुलासा किया, वह था कुछ समाचार पत्रों की कटिंग व जिसमें हिंसक घटनाओं की चर्चा थी। क्या यह बताने की कोषिष की जा रही थी कि अखबारों की चंद कतरनें उन्हें आतंकी साबित करने का पुख्ता आधार है। साध्वी प्रज्ञा पहले विद्यार्थी परिषद् की सदस्य थी, भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह व मध्य प्रदेष के भाजपा मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चैहान के साथ वह फोटों में दिखाई दे रही है- यह आतंकी होने का प्रमाण है ? एक सैन्य अधिकारी को वह जानती थी, वह सैन्य अधिकारी दूसरे अवकाष प्राप्त सैन्य अधिकारी को पिछले दस वर्ष से जानता था, इसलिए मालेगांव विस्फोट में प्रज्ञा का हाथ था ? जाहिर है कि इस मामले में भी निष्कर्ष तैयार है, कथानक के सूत्र जोड़ने के प्रयास किये जा रहे हैं। वहीं अनेक नेता निष्कर्ष निकालने में ज्यादा आगे निकल गये, उन्होंने हिन्दुवादी संगठनों को आतंकी करार देते हुए उन पर प्रतिबंध लगाने की मांग शुरू की है। पुलिस के शक की सूई भी अपना काम कर रही है, पहले सैन्य अधिकारियों की तरफ घूमी फिर माले गांव में प्रयुक्त आर.डी.एक्स. की बात चली तो स्वभाविक रुप से शक की सूई सेना के आयुध भण्डार की तरफ घूम गई। जबकि विष्वस्त सूत्रों के अनुसार आर.डी.एक्स. सेना का ‘सर्विस गोला बारुद’ है ही नहीं ऐसे में सैन्य डिपो से आर.डी.एक्स. की बात में ज्यादा दम नहीं है। तहकीकात के नाम पर एटीएस के सभी कदम संदेह के आधार पर उठ रहे हैं। इस आधार पर हिन्दू आतंकवादी कल्पना करने वाले, संरक्षण देने वाले, टेªनिंग देने वाले तथा बम रखने वाले सभी पर एटीएस का संदेह दूर करने का दारोमदार है। बकौल पुलिस इतने सुनियोजित ढ़ंग से हिन्दुआतंकवाद ने मालेगांव को निषाना बनाया, जिससे छः लोग मारे गए थे। इस मामले पर महाराष्ट्र पुलिस की सक्रियता आष्चर्यजनक। अभी वह संदेह के आधार पर कहां-कहां पहुंचेगी, कहा नहीं जा सकता, लेकिन संदेह तो यह हो रहा है जैसे महाराष्ट्र सरकार ने हिन्दू आतंकवाद के मद्देनजर की ‘महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रक अधिनियम’ (मकोका) बनाया था। इसमें संदिग्ध आरोपी को छः महीने तक कैद में रखा जा सकता है। पोटा जैसे कानून को हटाने वाली सप्रंग सरकार ने महाराष्ट्र को मकोका लागू करने पर सहमति दी, और मालेगांव भी महाराष्ट्र में है, क्या यह केवल संयोग है।

Sunday, November 9, 2008

कोश्यारी को राज्यसभा भेज केन्द्र ने साधे कई निशाने एक साथ

भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी को राज्य सभा में भेजे जाने के निर्णय से कोश्यारी तो कतई खुश नहीं हैं लेकिन इस फरमान से मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खंण्डूड़ी तथा प्रदेश अध्यक्ष बच्ची सिंह रावत भी खुश नहीं बताये जा रहे हैं। अब तक प्रदेश में काबिज अपनी ही सरकार के कार्यों से नाखुश विधायकों का नेतृत्व कर रहे पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी को अचानक राज्य सभा में भेजे जाने को भाजपा आला कमान द्वारा एक तीर से कई निशाने साधने के रूप में देखा जा रहा है। सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार केन्द्र ने यह फैसला बड़े ही सोच समझ कर लिया बताया जा रहा है। यही कारण है कि इस फैसले से कोई भी खुश नजर नहीं आ रहा है। राजनैतिक विश£ेषकों के अनुसार इस फैसले से कोश्यारी इस लिए खुश नहीं हैं कि उन्हे प्रदेश की राजनीति से केन्द्र ने जानबूझकर दूर करने का प्रयास किया। जबकि उनकी इच्छा कतई भी राज्यसभा में जाने की नहीं थी और केन्द्र ने उन्हे जबरन वहां जाने का फरमान सुना दिया। हालांकि सूत्र बताते हैं कि केन्द्र ने यह फैलसा इस लिए लिया कि सरकार की खिलाफत कर रहे विधायकों का नेता ही जब केन्द्र चला जाएगा तो प्रदेश में अब उनका नेतृत्व कौन करेगा लिहाजा सरकार के खिलाफ चल रहे शीत युद्घ में कुछ क मी तो जरूर आएगी और मुख्यमंत्री खंण्डूड़ी निर्बाध रूप से सरकार चला पाएंगे। लेकिन इधर खंण्डूड़ी विरोधी गुट का कहना है कि कोश्यारी के केन्द्र में जाने से कोई फर्क नहीं पडऩे वाला उनका आन्दोलन जारी रहेगा। कोश्यारी को राज्य सभा में भेजने के फैसले से मुख्यमंत्री तथा प्रदेश अध्यक्ष बच्ची सिंह रावत तक भी खुश नहीं बताए गए हैं। सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि भगत सिंह कोश्यारी के राज्य सभा में भेजे जाने की घोषणा के तीन दिन बाद तक इन दोनों नेताओं में से किसी ने भी कोश्यारी को वहां जाने की बधाई तक नहीं दी। इस नाखुशी के पीछे के कारणों पर प्रकाश डालते हुए राजनैतिक विश£ेषकों का मानना है कि कोश्यारी के राजनीतिक कद व संघ तथा भारतीय जनता पार्टी को उनके द्वारा दिये गये अपने सम्पूर्ण जीवनकाल के कारण उनका भाजपा के केन्द्रीय नेताओं से सीधा सम्पर्क तो है ही साथ ही उनकी वरिष्ठïता को कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता इसलिए यहां के नेताओं को इस बात का खतरा है कि कोश्यारी के केन्द्र में जाने से प्रदेश की सभी कच्ची -पक्की बातें वहां तक पहुंच जाएंगी। जिससे इनकी पोल-पट्टïी जो अब तक छिपी हुई थी वह वहां भी सार्वजनिक होगी जिसका खामियाजा इन्हे भुगतना पड़ सकता है। राजनीतिक विश£ेषकों के अनुसार अभी तक प्रदेश में क्या कुछ भाजपा में चल रहा है अथवा क्या कुछ सरकार में चल रहा है उसकी सही तस्वीर केन्द्रीय नेताओं तक इसलिए नहीं पहुंच पा रही थी कि इन दोनों ने प्रदेश प्रभारियों को खरीद लिया था और जो कुछ ये प्रदेश प्रभारियों को फीड करते थे वह बात ही केन्द्र तक पहुंचती थी शेष बात बीच में ही गायब हो जाती थी। यही कारण है कि बीच में प्रदेश प्रभारियों क ी कार्यप्रणाली पर प्रदेश के विधायकों सहित मंत्रियों तक ने उंगुलियां उठाई थी और केन्द्र को प्रभारी बदलने पर सोचना पड़ रहा है। जहां तक प्रदेश अध्यक्ष बच्ची सिंह रावत की नाखुशी के बारे में राजनीतिक विश£ेषकों का कहना है कि भाजपा आलाकमान की इस घोषणा के बाद वे अब कहीं के नहीं रहे। या तो उन्हे भगत सिंह कोश्यारी के राज्य सभा में जाने के बाद उनकी खाली हो रही विधानसभा सीट कपकोट से विधानसभा चुनाव लडऩा होगा या फिर वे राजनीति के बियावान में यूं ही भटकते रहेंगे। सूत्रों के अनुसार उन्हे पूरी उम्मीद थी कि भाजपा आलाकमान उन्हे राज्य सभा की सीट से टिकट देकर राज्य सभा का पास जारी कर देगा लेकिन ऐन वक्त पर कोश्यारी को उनके न चाहने के बाद भी टिकट देने से बच्ची दा की आशाओं पर पानी फिर गया, और वे कहीं के नहीं रहे।

Saturday, November 1, 2008

अनोखी परंपरा है अग्नि भेंट सेवा

दीपक फरस्वाण,
देहरादून:  जो धार्मिक ग्रंथ गुटका वृद्ध हो गया, उसका क्या किया जाए-यह ऐसा सवाल है, जो हर घर में कभी न कभी अवश्य उठता है। दुविधा यह रहती है कि जिन पुस्तकों ने ज्ञान और भक्ति का मार्ग दिखाया, उनके पन्नों के फटने, पुराने हो जाने पर उनका किया क्या जाए? रास्ता दिखाता है देहरादून का खुशहालपुर गांव। यहां एक ऐसा गुरुद्वारा है, जहां दुनिया भर से फटे- पुराने धार्मिक ग्रंथ लाकर उन्हें सम्मान पूर्वक अग्नि के हवाले किया जाता है। इस अग्नि भेंट सेवा का मकसद पवित्र ग्रंथों को बदहाली से बचाना और उनका सम्मान करना है। मनुष्य देह की तर्ज पर धार्मिक ग्रंथों का भी अंतिम संस्कार होता है। खुशहालपुर स्थित गुरुद्वारे को अंगीठा साहिब नाम से जाना जाता है। यहां गुरु के उस वचन को पूरा किया जाता है, जिसमें उन्होंने धार्मिक ग्रंथों व पुस्तकों को बदहाली से बचाने की बात कही थी। गुरुद्वारे के सेवक हर साल दुनिया घूम कर सभी धर्मो के फटे-पुराने ग्रंथों को एकत्र करके अंगीठा साहेब लाते हैं। गुरुद्वारे में इन ग्रंथों को मखमली कपड़े से साफ कर सफेद चादर में लपेटकर रखा जाता है और अग्नि भेंट सेवा का आयोजन होता है। गुरुद्वारे के एक हाल में 24 अंगीठे बनाए गए हैं। अग्नि भेंट सेवा में पीला चोला पहने पंच प्यारों की भूमिका अहम होती है। इस अनूठी सेवा की प्रक्रिया भी रोचक है। गुरु सेवक विधि-विधान के साथ एक-एक ग्रंथ को अपने सिर पर रखकर गुरुद्वारे से हाल तक पहुंचाते हैं। एक बार में सिर्फ छह अंगीठों को ही लकडि़यों से सजाते हैं। प्रत्येक अंगीठे के ऊपर 13-13 ग्रंथ, 13 चादरों और 13 रूमालों के बीच रखे जाते हैं। पंच प्यारे हर अंगीठे की 5-5 परिक्रमा करने के बाद अरदास के साथ अग्नि प्रज्वलित करते हैं। एकत्रित सभी ग्रंथों के संस्कार तक यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। दूसरे दिन कच्ची लस्सी का छींटा मारकर प्रत्येक अंगीठे से फूल (ग्रंथों की राख) चुने जाते हैं। अग्नि भेंट सेवा का अंतिम चरण हिमाचल प्रदेश के पांवटा साहिब में पूर्ण होता है। पंच प्यारों द्वारा अंगीठों से चुने गए फूलों को विधि-विधान से पांवटा साहिब स्थित गुरुद्वारे के पीछे यमुना नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के बयान से बवाल, ठंडी हो रही आग में बयान बना घी

राजेन्द्र जोशी देहरादून : नौ नवम्बर को प्रदेश का स्थापना दिवस मनाया जाने वाला है लेकिन इस दिन से पहले प्रदेश भाजपा सरकार तथा संगठन में फेरबदल की पूरी संभावना है। जानकार सूत्र बताते हैं कि इस फेरबदल में कुछ विधायकों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी जा सकती हैं। इसके अलावा राज्य भाजपा में उत्पन्न संकट के लिए जवाबदेही भी तय की जा रही है। सूत्र बताते हैं कि केन्द्रीय नेतृत्च प्रदेश प्रभारी तथा सह प्रभारी की भूमिका को इस मामले को बढ़ाने में ज्यादा जवाबदेह मानता है। यहीं कारण है कि प्रदेश भाजपा में मचे घमासान की गाज प्रदेश सह प्रभारी अनिल जैन पर गिर सकती है। क्योंकि केन्द्रीय नेतृत्व असंतुष्टïों की बार-बार दिल्ली दौड़ को इन प्रदेश प्रभारियों की विफलता भी मानने लगा है। वहीं दूसरी ओर जहां केन्द्रीय नेतृत्व प्रदेश में उपजे असंतोष को दबाने का प्रयास कर रहा है वहीं दूसरी ओर ऐसे मौके पर प्रदेश अध्यक्ष बच्ची सिंह रावत के बयान ने एक बार फिर भाजपा में घमासान को हवा दे दी है। जिस पर भाजपा के वरिष्ठï नेताओं सहित कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत ने भी तीखी टिप्पण की है। उन्होने तथा भाजपा के वरिष्ठï नेता भगत सिंह कोश्यारी ने तो साफ कहा है कि अब प्रदेश अध्यक्ष को साफ करना होगा कि किस विधायक के माफियाओं तथा बिल्डरों से रिश्ते हैं। प्रदेश अध्यक्ष बच्ची सिंह रावत के बयान कि ''विपक्ष के कुछ नेताओं तथा कुछ माफियाओं व बिल्डरों के द्वारा भाजपा सरकार को अस्थिर करने के लिए भाजपा विधायकों को धन का प्रलोभन देकर इस्तीफा दिलवाने की खबरों पर पार्टी नेतृत्व गम्भीरता से विचार करेगा और यदि इस प्रकार की खबरों में कोई सच्चाई सामने आई तो किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा चाहे वह कितना ही बड़ा नेता क्यों न हो।ÓÓ पर भाजपा के वरिष्ठï नेता भगत सिंह कोश्यारी ने कहा कि सागर में लहरें उठती ही रहती हैं उन्हे थामा नहीं जा सकता है। उन्होने कहा कि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने जो बयान दिया है वह जिम्मेदरी से दिया होगा ऐसे में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को साफ करना होगा कि किन-किन विधायकों के पीछे माफिया तथा बिल्डर हैं और प्रदेश में भाजपा की सरकार है और सरकार के पास तंत्र है उसके पास पूरी जानकारी होगी कि किस विधायक के संबध माफियाओं से हैं ऐसे में उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए। वहीं दूसरी ओर नेता प्रतिपक्ष ने भी टिप्पणी करते हुए कहा कि भाजपा सरकार तथा संगठन के बीच की लड़ाई और विधायकों पर भरोसा न करना इस बात का सबूत है कि भाजपा में कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है। उन्होने कहा कि प्रदेश अध्यक्ष के बयान से साफ हो गया है कि भाजपा सरकार व माफियाओं में कहीं न कहीं गठजोड़ जरूर है। साथ ही उन्होने कहा कि इनके झगड़े से हमारा कोई लेना देना नहीं। उन्होने कहा कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने ठोस जानकारी के आधार पर ही अपने विधायको तथा माफियाओं के बीच गठजोड़ की बात कही होगी। लिहाजा उन्हे अब उनका खलासा जनता के सामने करना होगा ताकि जनता को भी तो पता चले कि किसका कहां समपर्क है। उन्हेाने कहा कि कांग्रेस पहले ही कह चुकी है कि भाजपा सरकार और माफियाओं में कहीं न कहीं कोई गठजोड़ जरूर है इसी बात को भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने भी कहा है इसका साफ मतलब है कि हमारी जानकारी सही है। कुल मिलाकर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के इस बयान ने विपक्ष को बैठे बिठाए एक मुद्दा और दे दिया है। वहीं भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के इस बयान के राजनैतिक निहितार्थ भी लगाये जाने शुरू हो गये हैं।

Tuesday, October 28, 2008

उत्तराखण्ड के 17 विधायकों के बाद अब 11 और देंगे इस्तीफा

देहरादून,( राजेन्द्र जोशी)। उत्तराखण्ड भारतीय जनता पार्टी में सब कुछ सामान्य नहीं हैं। नेतृत्व परिवर्तन को लेकर इस बार मुख्यमंत्री विरोधी खेमा इस बार आर पार के मूड में है। भाजपा स़ूत्रों के अनुसार इस यदि केन्द्रीय नेतृत्व ने इनकी शिकायत को हल्के में लिया तो उत्तराखण्ड झारखण्ड तक बन सकता है। असंतुष्ट विधायकों का साफ कहना है कि वे इस मामले में अब ज्यादा लेट लतीफी के मूड में नहीं हैं और वे विधानसभा अध्यक्ष तक को इस्तीफा देने के बाद नया गुट तक बनाने की सीमा भी पार कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि बीते दिन भाजपा के तीन मंत्रियों सहित सत्रह विधायकों ने बीते दिन अपना इस्तीफा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को सौंप दिए जाने की खबर के बाद उत्तराखण्ड की राजनीति में एक बार फिर से भूचाल आ गया है। उत्तराखण्ड में द्वितीय लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 34 सीटें जीतकर जब सरकार बनाने की स्थिति में आई तो उस समय केन्द्रीय नेतृत्व ने पूर्व केन्द्रीय मंत्री भुवनचन्द्र खण्डूड़ी को उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बनाया। भुवनचन्द्र खण्डूड़ी के मुख्यमंत्री बनते ही फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर उठा-पटक शुरू हो गई है। इस आपातकालीन स्थिति को सहज करने के लिए बहुमत मिलने के बाद भी 6 दिन बाद मुख्यमंत्री का सेहरा श्री खण्डूड़ी के सिर बांधा गया। विधायकों के द्वंद के चलते मुख्यमंत्री सहित केवल एक मंत्री ने आठ मार्च को शपथ ग्रहण की। जब मंत्रियों के विभाग के बंटवारे की बात आई तो मंत्रिमण्डल गठन को लेकर ही भाजपा को 18 दिन लग गए। मंत्रियों को संतुष्ट करने के लिए उनके विभागों का बंटवारा एक हफ्ते के बाद एक अप्रैल को किया गया। इन परिस्थितियों के बाद नाराज पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी समय-समय पर अपनी नाराजगी केन्द्रीय नेतृत्व के सामने रखते रहे। विगत दिनों लगभग ढाई दर्जन विधायकों ने जब नेतृत्व के सामने खण्डूड़ी के कार्य को लेकर अपना विरोध दर्ज कराया तो नेतृत्व ने उन्हें पंचायत चुनाव तक की मोहलत दे डाली। इस दौरान केन्द्रीय नेतृत्व को ऐसा लगा यह मोहलत पंचायत चुनाव की जगह लोकसभा चुनाव तक खींची जा सकती है लेकिन मुख्यमंत्री के साथ केवल तीन विधायकों का होना श्री खण्डूड़ी को कमजोर करता गया। नाराज गुट को मनाने के लिए खण्डूड़ी ने इस समय की मोहलत के दौरान कई प्रयास किए, उसी कड़ी में कुछ दिन पूर्व शेष 24 विधायकों को लालबत्ती से नवाजने की भी तैयारी की गई, जिसके लिए 23 सरकारी पदों को लाभ के दायरे से कैबिनेट द्वारा बाहर भी किया गया, जिसे लेकर भी विधायकों व मुख्यमंत्री के बीच असमंजस की स्थिति लगातार बनी रही और विधायकों ने यह पद लेने से साफ इन्कार कर दिया और कहा कि उनकी लड़ाई पदो ंके लिए नहीं बल्कि नेतृत्व परिवर्तन के लिए है,और वह तब तक जारी रहेगी जब तक प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन न हो जाए। वहीं दो दिन पूर्व जब यह पता चला कि एक मंत्री ने अपना इस्तीफा सौंप दिया है तो उसके राजनीतिक गतिविधियां राज्य में फिर से तेज हो गई। श्री खण्डूड़ी लगातार विधायकों को अपने पाले में करने का प्रयास करते रहे। वहीं बीते दिन नाराज गुट के 17 विधायकों ने जिसमें तीन मंत्री भी शामिल हैं के इस्तीफे खबर आने के बाद प्रदेश की राजनीति एक बार फिर से गर्मा गयी हैं। बताया जाता है कि इस्तीफा देने वाले 14 विधायकों में 9 विधायक कुमाऊं से 5 विधायक गढ़वाल क्षेत्र के बताए जाते हैं। दूसरी ओर देर रात मुख्यमंत्री ने इस बात का खण्डन कर दिया कि किसी भी विधायक ने इस्तीफा राष्ट्रीय अध्यक्ष को नहीं सौंपा है। उन्होनें पत्रकारों से बातचीत में बताया कि उनकी राष्ट्रीय अध्यक्ष से बात हो गयी है राष्ट्रीय अध्यक्ष ने विधायकों के इस्तीफे मिलने की बात से साफ इंकार किया है। भाजपा प्रदेश सह प्रभारी अनिल जैन ने भी अपने राजनैतिक बयान में इस तरह की किसी खबर से साफ इंकार करते हुए कहा कि खण्डूरी सरकार पूरे पांच साल काम करेगी। लेकिन स्थिति अभी भी जस की तस है और आज फिर एक बार 11 और विधायकों के इस्तीफे देने जाने की खबर है। जबकि नाराज विधायकों का साफ कहना है कि इस बार वे आर-पार की लड़ाई के लिए तैयार हैं। उन्होने कहा कि वे जनप्रतिनिधि हैं और मुख्यमंत्री का व्यवहार उनके प्रति ठीक नहीं है। उनका कहना है कि यदि भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने इस बीमारी का ईलाज समय रहते नहीं किया तो वे विधानसभा अध्यक्ष तक को इस्तीफा सौंप सकते हैं और इस पर भी बात नहीं बनी तो वे झारखण्ड की सी स्थिति यहां भी बना सकते हैं। उन्होने केन्द्रीय नेताओं पर आरोप भी लगाया कि वह इस मामले में टाल मटोल कर परिस्थितियों को और खराब कर रहा है।

Friday, October 24, 2008

सुशील प्रकरण : वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन



एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के इशारे पर वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने और पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के खिलाफ वेब मीडिया से जुड़े लोगों ने दिल्ली में एक आपात बैठक की। इस बैठक में हिंदी के कई वेब संपादक-संचालक, वेब पत्रकार, ब्लाग माडरेटर और सोशल-पोलिटिकिल एक्टीविस्ट मौजूद थे। अध्यक्षता मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने की। संचालन विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने किया। बैठक के अंत में सर्वसम्मति से तीन सूत्रीय प्रस्ताव पारित किया गया। पहले प्रस्ताव में एचटी मीडिया के कुछ लोगों और पुलिस की मिलीभगत से वरिष्ठ पत्रकार सुशील को इरादतन परेशान करने के खिलाफ आंदोलन के लिए वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन किया गया।

इस समिति का संयोजक मशहूर पत्रकार आलोक तोमर को बनाया गया। समिति के सदस्यों में बिच्छू डाट काम के संपादक अवधेश बजाज, प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेंदु दाधीच, गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा, तीसरा स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रीय संगठक गोपाल राय, विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी, लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार, मीडिया खबर डाट काम के संपादक पुष्कर पुष्प, भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह शामिल हैं। यह समिति एचटी मीडिया और पुलिस के सांठगांठ से सुशील कुमार सिंह को परेशान किए जाने के खिलाफ संघर्ष करेगी। समिति ने संघर्ष के लिए हर तरह का विकल्प खुला रखा है।

दूसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को परेशान करने के खिलाफ संघर्ष समिति का प्रतिनिधिमंडल अपनी बात ज्ञापन के जरिए एचटी मीडिया समूह चेयरपर्सन शोभना भरतिया तक पहुंचाएगा। शोभना भरतिया के यहां से अगर न्याय नहीं मिलता है तो दूसरे चरण में प्रतिनिधिमंडल गृहमंत्री शिवराज पाटिल और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से मिलकर पूरे प्रकरण से अवगत कराते हुए वरिष्ठ पत्रकार को फंसाने की साजिश का भंडाफोड़ करेगा। तीसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि सभी पत्रकार संगठनों से इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए संपर्क किया जाएगा और एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के खिलाफ सीधी कार्यवाही की जाएगी।

बैठक में प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेन्दु दाधीच का मानना था कि मीडिया संस्थानों में डेडलाइन के दबाव में संपादकीय गलतियां होना एक आम बात है। उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए जाने की जरूरत नहीं है। बीबीसी, सीएनएन और ब्लूमबर्ग जैसे संस्थानों में भी हाल ही में बड़ी गलतियां हुई हैं। यदि किसी ब्लॉग या वेबसाइट पर उन्हें उजागर किया जाता है तो उसे स्पोर्ट्समैन स्पिरिट के साथ लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि संबंधित वेब मीडिया संस्थान के पास अपनी खबर को प्रकाशित करने का पुख्ता आधार है और समाचार के प्रकाशन के पीछे कोई दुराग्रह नहीं है तो इसमें पुलिस के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने संबंधित प्रकाशन संस्थान से इस मामले को तूल न देने और अभिव्यक्ति के अधिकार का सम्मान करने की अपील की।

भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह ने कहा कि अब समय आ गया है जब वेब माध्यमों से जुड़े लोग अपना एक संगठन बनाएं। तभी इस तरह के अलोकतांत्रिक हमलों का मुकाबला किया जा सकता है। यह किसी सुशील कुमार का मामला नहीं बल्कि यह मीडिया की आजादी पर मीडिया मठाधीशों द्वारा किए गए हमले का मामला है। ये हमले भविष्य में और बढ़ेंगे।

विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने कहा- ''पहली बार वेब मीडिया प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों मीडिया माध्यमों पर आलोचक की भूमिका में काम कर रहा है। इसके दूरगामी और सार्थक परिणाम निकलेंगे। इस आलोचना को स्वीकार करने की बजाय वेब माध्यमों पर इस तरह से हमला बोलना मीडिया समूहों की कुत्सित मानसिकता को उजागर करता है। उनका यह दावा भी झूठ हो जाता है कि वे अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार हैं।''

लखनऊ से फोन पर वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कई पत्रकार पुलिस के निशाने पर आ चुके हैं। लखीमपुर में पत्रकार समीउद्दीन नीलू के खिलाफ तत्कालीन एसपी ने न सिर्फ फर्जी मामला दर्ज कराया बल्कि वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत उसे गिरफ्तार भी करवा दिया। इस मुद्दे को लेकर मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश पुलिस को आड़े हाथों लिया था। इसके अलावा मुजफ्फरनगर में वरिष्ठ पत्रकार मेहरूद्दीन खान भी साजिश के चलते जेल भेज दिए गए थे। यह मामला जब संसद में उठा तो शासन-प्रशासन की नींद खुली। वेबसाइट के गपशप जैसे कालम को लेकर अब सुशील कुमार सिंह के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह बात अलग है कि पूरे मामले में किसी का भी कहीं जिक्र नहीं किया गया है।

बिच्छू डाट के संपादक अवधेश बजाज ने भोपाल से और गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा ने अहमदाबाद से फोन पर मीटिंग में लिए गए फैसलों पर सहमति जताई। इन दोनों वरिष्ठ पत्रकारों ने सुशील कुमार सिंह को फंसाने की साजिश की निंदा की और इस साजिश को रचने वालों को बेनकाब करने की मांग की।

बैठक के अंत में मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि सुशील कुमार सिंह को परेशान करके वेब माध्यमों से जुड़े पत्रकारों को आतंकित करने की साजिश सफल नहीं होने दी जाएगी। इस लड़ाई को अंत तक लड़ा जाएगा। जो लोग साजिशें कर रहे हैं, उनके चेहरे पर पड़े नकाब को हटाने का काम और तेज किया जाएगा क्योंकि उन्हें ये लगता है कि वे पुलिस और सत्ता के सहारे सच कहने वाले पत्रकारों को धमका लेंगे तो उनकी बड़ी भूल है। हर दौर में सच कहने वाले परेशान किए जाते रहे हैं और आज दुर्भाग्य से सच कहने वालों का गला मीडिया से जुड़े लोग ही दबोच रहे हैं। ये वो लोग हैं जो मीडिया में रहते हुए बजाय पत्रकारीय नैतिकता को मानने के, पत्रकारिता के नाम पर कई तरह के धंधे कर रहे हैं। ऐसे धंधेबाजों को अपनी हकीकत का खुलासा होने का डर सता रहा है। पर उन्हें यह नहीं पता कि वे कलम को रोकने की जितनी भी कोशिशें करेंगे, कलम में स्याही उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाएगी। सुशील कुमार प्रकरण के बहाने वेब माध्यमों के पत्रकारों में एकजुटता के लिए आई चेतना को सकारात्मक बताते हुए आलोक तोमर ने इस मुहिम को आगे बढ़ाने पर जोर दिया।

बैठक में हिंदी ब्लागों के कई संचालक और मीडिया में कार्यरत पत्रकार साथी मौजूद थे।



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अगर आप भी कोई ब्लाग या वेबसाइट या वेब पोर्टल चलाते हैं और वेब पत्रकार संघर्ष समिति में शामिल होना चाहते हैं तो aloktomar@hotmail.com पर मेल करें। वेब माध्यमों से जुड़े लोगों का एक संगठन बनाने की प्रक्रिया शुरू की जा चुकी है। आप सबकी भागीदारी का आह्वान है।
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((इस पोस्ट को कापी करके आप अपने-अपने ब्लागों-वेबसाइटों पर प्रकाशित करें ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक यह संदेश पहुंचाया जा सके और वेब माध्यम के जरिए सुशील कुमार की लड़ाई को विस्तार दिया जा सके।))
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Saturday, October 18, 2008

उत्तराखण्ड में भाजपा चली कांग्रेस की राह

राजेन्द्र जोशी देहरादून : प्रदेश में काबिज पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के शासनकाल के दौरान बांटी गई लाल बत्तियों के विरोध के बूते सत्ता हासिल करने वाली भाजपा सरकार भी अब उसी राह पर चल निकली है। यही कारण है भाजपा सरकार द्वारा प्रदेश के 23 पदों को आफिस आफ प्रोफिट की श्रेणी से बाहर करने को इसी रणनीति के हिस्से के रूप में देखा जा रहा है कि अब भाजपा सरकार भी अपने प्रमुख कार्यकर्ताओं के साथ ही कुछ विधायकों को लाल बत्ती से नवाजने जा रही है यह वही भाजपा है जिसने विधानसभा चुनाव में लालबत्ती को मुद्दा बनाया था और इस समेत कई अन्य मुद्दों के साथ ही वह कांग्रेस के सामने खड़ी थी, और कांग्रेस से सत्ता छीनने में कामयाब हुई थी। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में काबिज भाजपा बीते विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेस सरकार द्वारा बेतहाशा लालबत्तियों के आवंटन, मुख्यमंत्री राहत कोष के आवंटन के साथ ही फिजूल खर्ची सहित उद्योगपतियों को रियायतें दिये जाने को मुद्दा बनाकर सत्ता में आई थी। इतना ही नहीं भाजपा ने कांग्रेस द्वारा गार्डनर को विधानसभा में एंग्लो इंडियन सदस्य के रूप में नामित किये जाने को भी मुद्दा बनाया था और वह इसके खिलाफ राज्यपाल से लेकर उच्च न्यायालय तथा चुनाव आयोग तक में गयी थी। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में यह साफ दिखाई देने लगा है कि भाजपा सरकार भी उसी कांग्रेसी सरकार के पद चिन्हों पर चलती नजर आ रही है। बीते दिन भाजपा सरकार ने जहां अपने कार्यकर्ताओं तथा विधायकों में सरकार के प्रति उठ रहे विरोध के स्वरों को दबाने के लिए प्रदेश के तमाम विभागों के 23 पदों को आफिस आफ प्रोफिट के दायरे से बाहर कर उन्हे इन पदों पर एडजस्ट करने की कवायद शुरू कर दी है। सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार अगले कुछ दिनों में कई भाजपाईयों को इन पदों पर बैठा दिया जाएगा इसके लिए भाजपा संगठन ने सूची बनानी शुरू कर दी है कि किस कार्यकर्ता को किस पद पर एडजस्ट किया जायेगा। ईधर भाजपा सूत्रों का कहना है कि सरकार इन्हे केवल दायित्वधारी तक ही सीमित करना चाहती है तथा इन पदों पर काबिज कार्यकर्ताओं को मानदेय भी दिया जाएगा। दायित्वों से नवाजे जाने के मामले पर नेता प्रतिपक्ष डा0 हरक सिंह रावत का कहना है कि तिवारी सरकार ने तो सरकार के तीन साल बाद अपने कार्यकर्ताओं को दायित्वधारी बनाया जबकि भाजपा ने मात्र 20 महीने में ही अपने कार्यकर्ताओं को दायित्वों से नवाजने की तैयारी कर दी है। उनका कहना है कि नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाली भाजपा को भी यही सब करना था तो उसने कांग्रेस की आलोचना क्यों की थी और प्रदेश की जनता को क्यों झूठे सपने दिखाये थे। मामले में डा0 हरक सिंह रावत का साफ कहना है कि मुख्यमंत्री अपने खिलाफ उपजे असंतोष को दबाने के लिए यह सब कर रहे हैं। उन्होने कहा कि पूर्व कांग्रेस सरकार ने लालबत्ती से नवाजे गये दायित्वधारियों को केवल बैठक में जाने के दौरान ही टैक्सी किराया व मामूली रकम को मानदेय के रूप में देने की ही अनुमति दी थी लेकिन कांग्रेस सरकार पर फिजूलखर्ची का आरोप लगाने वाली भाजपा ने अब इससे आगे बढक़र अपने कार्यकर्ताओं को दायित्वों के साथ ही मानदेय में कई गुना बढ़ोत्तरी कर इसे साढ़े आठ हजार से दस हजार रूपये तथा असीमित यात्रा व्यय तक देने के आदेश दिये हैं। उन्होने कहा जहां तक कांग्रेस शासनकाल में मुख्यमंत्री राहत कोष की बंदरबांट का मामला भाजपा द्वारा उठाया गया और इसे चुनावी मुद्दा तक बनाया गया लेकिन स्थिति इसके एकदम उलट है। प्रदेश सरकार ने जिस आरएसएस के व्यक्ति को इसे बांटने का जिम्मा सौंपा है उसकी पौ बारह हो गयी है। अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को देय की कहावत यहां चरितार्थ हो रही है प्रदेश मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष का जमकर दुरपयोग किये जाने की शिकायतें आम हो गयी है। इस मामले पर कांग्रेस के नेता व नेता प्रतिपक्ष डा0 हरक सिंह रावत का तो साफ कहना है कि तिवारी जी के शासनकाल में उन पर उंगली उठाने वाली भाजपा तो उससे आगे चल निकली है। उनका कहना है कि कांगे्रस शासनकाल में मुख्यमंत्री राहत कोष का लाभ प्रदेश के हर उस जरूरतमंद व्यक्ति को मिला जिसको जरूरत थी लेकिन वर्तमान सरकार ने इसे आरएसएस कोष बनाकर रख दिया है और जिस जरूरतमंद व्यक्ति को विवेकाधीन कोष से आर्थिक सहायता की जरूरत है उसे धक्के खाने पड़ रहे हैं। कांगे्रसी नेता का कहना है कि मितव्ययता की बात करने वाली भाजपा सरकारी संसाधनों का जमकर दुरपयोग कर रही है। मंत्रिमंडल की बैठक में कोरम पूरा करने के लिए बीमार मंत्रियों को हैलीकाप्टर से लाया जा रहा है। सरकार संवेदनहीन हो चुकी है इसका उदाहरण यह है कि बीते दिनों हुई बस दुर्घटनाओं में घायलों को यदि हैलीकाप्टर से पहाड़ी क्षेत्रों से अस्पतालों तक पहुंचाया जाता तो कई घायल बच सकते थे लेकिन सरकार के पास उनके लिए समय नहीं है। मुख्यमंत्री केवल हवाई जहाज अथवा हैलीकाप्टर से यात्रा कर रहे हैं। दुर्घटनाओं के बाद अस्पतालों में जीवन मौत से जूझ रहे घायलों को देखने का वक्त न तो मुख्यमंत्री के पास है और न उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों के पास।

Tuesday, September 30, 2008

संजीवनी पर विवाद





चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
ये सामान्य पादप हैं - वनस्पति वैज्ञानिक प्रोफेसर भट्ट
लोकव्यवहार में भी नहीं ऐसी बूटी- मनोहरकान्त ध्यानी 
राजेन्द्र जोशी 
देहरादून : पतंजलि योग पीठ के स्वामी बालकृष्ण तो हनुमान जी से भी तेज निकले जो सीधे द्रोणगिरी पर्वत पर जा पहुंचे और उस संजीवनी को उठा लाये, जिसकी पहचान हनुमान जी तक को नहीं थी। तभी तो हनुमान जी पूरा का पूरा द्रोणागिरी पर्वत उठाकर श्री लंका रख आये और जहां सुषेन वैद्य ने इस पर्वत से ढंूढने के बाद लक्ष्मण की मूच्र्छा ठीक किया था। योग पीठ के स्वामी के इस दावे पर कि वे द्रोणागिरी पर्वत से संजीवनी ले आये हैं, पर अंगुलियां उठनी शुरू हो गयी हैं। कि जब हनुमान जी द्रोणगिरी पर्वत उठाकर श्री लंका रख आए हैं तो बालकृष्ण जी ने संजीवनी आखिर कौन से पर्वत से व कहां से ढंूढ़ी और यदि संजीवनी अभी तक बची है तो हनुमान जी क्या ले गए थे और क्या वह परम्परा भी झूठी है जो यहां के लोग हनुमान की की पूजा इस लिए नहीं करते कि वे इस क्षेत्र से पूरा का पूरा पहाड़ ही श्री लंका रख आए थे। इससे तो यह लगता है कि या तो हनुमान जी यहां से द्रोणागिरी पर्वत नहीं ले गये और या फिर यहां की लोकमान्यता ही गलत है। उल्लेखनीय है कि बीते दिनों पतंजलि योगपीठ के स्वामी बालकृष्ण द्वारा द्रोणागिरी पर्वत पर जाकर तीन दिन के भीतर ही वहां से संजीवनी बूटी लाने का दावा किया गया था। वहां से लौटने के बाद उन्होने बताया था कि संजीवनी बूटी चार औषधि पादपों से मिलकर बनी है जिसमें मृत संजीवनी, विषालया कर्णी,सुवर्ण कर्णी तथा संधानी शामिल हैं। लेकिन आचार्य के इस दावे सेे प्रदेश के पादप विज्ञानी प्रोफेसर राजेन्द्र भट्टï सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि बालकृष्ण जी जिन पौधों की बात कर रहे हैं वनस्पति विज्ञान में वे असमान्य पादप नहीं हैं। वनस्पति शास्त्र में इन्हे सोसोरिया गोसिपी फोरा तथा सिलेनियम कहा जाता है। उन्होने वताया कि बालकृष्ण के हिसाब से वे अदभुत हो सकते हैं अथवा उन्हें उन्होने पहली बार देखा हो लेकिन वनस्पति विज्ञान की सैकड़ों पुस्तकों में इनका उद्हरण मिलता है, और वनस्पति विज्ञानियों को इसकी खूब जानकारी है। उन्हेाने बताया कि मध्य हिमालय के इस क्षेत्र के ऊंचे स्थानों जिन्हे बुग्याल कहा जाता है, में यह पौधे सामान्यतया मिलते हैं। उनका यह भी कहना है कि संजीवनी के बारे में अभी तक यह पता भी नहीं है कि वह केवल एक ही पादप था अथवा कई पाइपों के रस से बनी औषधि। उन्होने कहा बालकृष्ण को इसे संजीवनी बताने से पहले इसका रसायनिक परीक्षण जरूर कराना चाहिए था। उन्होने भी इसे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का गैर वैज्ञानिक तरीका बताया। वहीं श्री बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के पूर्व अध्यक्ष तथा वर्तमान में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनोहर कांत ध्यानी जिन्हेाने अपने जीवन का अधिकंाश समय जोशीमठ, बदरीनाथ सहित इस मध्य हिमालय में गुजारा है बताते हैं कि यह केवल वाह-वाही लूटने का सस्ता तरीका है। उन्होने कहा कि वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय क्षेत्र को अभी पांच करोड़ साल पूरे हुए हैं जबकि त्रेतायुग में रामचन्द्र जी के समय को बीते अभी लगभग एक करोड़ 40 लाख साल ही हुए हैं। तब से लेकर अब तक प्रकृति में न जाने कितने बदलाव हुए हैं। वहीं उनके अनुसार राम काल के बाद महाभारत काल आया इसी समय से इन तीर्थ यात्राओं की शुरूआत हुई जब धौम्य मुनि पांडवों को इस मार्ग से ले कर गये थे। इस दौरान कहीं भी इस संजीवनी बूटी का जिक्र नहीं मिलता है। उनके अनुसार उत्तराखण्ड क्षेत्र प्राचीन काल से वैद्यों तथा रस शास्त्रियों की भूमि रही है तथा आयुर्वेद में यहां कई प्रयोग तथा अनुसंधान हुए हैं इतना ही नहीं स्थानीय लोगों के लोक व्यवहार में भी इस बूटी का कहीं कोई जिक्र नहीं है। ऐसे में यदि उन्होने वाकई यदि संजीवनी को खोजा है तो प्रशंसनीय है। वहीं इस मामले पर राज्य के आयुर्वेद विज्ञान के जाने माने आयुर्वेद शास्त्री पंण्डित मायाराम उनियाल का कहना है कि लोकपरम्परा अथवा लोकव्यवहार में भी इसका अभी तक कहीं प्रयोग नहीं मिला है लिहाजा अभी इस पर शोध किया जान जरूरी है तभी किसी निर्णय पर पहुंचा जा सकता है।

Wednesday, September 17, 2008

तिब्बती ज्योतिषी शरीर त्यागने पर भी ध्यानमग्न रहा


राजेन्द्र जोशी देहरादून: अपनी मौत के ६ दिन बाद तक एक तिब्बती तपस्वी लामा अपने शव के अन्दर योगध्यान में मग्न रहा। इसीलिये इतने दिनों तक तिब्बती समुदाय के लोगों ने उसका दाह संस्कार नहीं किया। आप चाहे माने या नहीं माने मगर तिब्बतियों के शाक्य सम्प्रदाय के लोगों का तो यहां यही मानना है कि बीते तीन सितम्बर को ध्यान समाधि मुद्रा में प्राण त्यागने वाले तिब्बती लामा लोबसांग थिनले यहां राजपुर स्थित शाक्य अस्पताल में अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी नश्वर देह के अन्दर ध्यान साधना में मग्न रहे। इस दौरान उन्हें उसी ध्यान मुद्रा में रखा गया और फिर छठेे दिन राजपुर स्थित तिब्बती श्मशान में उस देह का महान सन्तों की तरह दाह संस्कार कर दिया गया। शाक्य मठ के प्रवक्ता कुन्गा रिनचेन ने बताया कि सामान्यत: मृतक का शरीर जल्दी ही ठण्डा पड़ अकड़ जाता है और फिर शरीर से बदबू आने लगती है। मगर लामा लोबसांग थिनले की देह इन 6 दिनों तक इस तरह अप्रभावित रही जैसे कि वह योगध्यान मुद्रा में ही हों। रिनचेन ने बताया कि छठे दिन भी थिनले का पार्थिव नरम और गरम रहा। बदबू का तो सवाल ही नहीं था। इस दौरान उनकी गरदन भी सीधी रही। जबकि सामान्य मामलों में मृत शरीर की गरदन एक तरफ लुढ़क जाती है। मठ के प्रवक्ता ने बताया कि तिब्बत के आम्दो प्रान्त के गंवा नामक स्थान में जन्में सोबसांग थिनले १७ साल पहले भारत आये थे। भारत में वह सीधे राजपुर स्थित शाक्य मठ में चले आये जहां उन्होंने दलाई लामा के बाद दूसरे नम्बर के धर्म प्रमुख महापवित्र शाक्य त्रिजिन की शरण में बज्र योगिनी ध्यान तपस्या शुरू कर दी थी। देहरादून में उन्हें शाक्य केन्द्र में आवास दिया गया जहां कुछ सहायकों के अलावा उन्हें कोई नहीं मिलता था। प्रवक्ता ने बताया कि वह न 17 सार्लोंं तक निरन्तर ध्यान मग्न रहे और कभी कभार उसी मुद्रा में टहलते थे या यात्रा पर जाते थे। मृत्यु से तीन दिन पूर्व सोबसांग ने अपने परिचरों को आदेष दे दिये थे कि अब वह देह त्यागने जा रहे हैं और ध्यान मुद्रा में ही प्राण त्यागेंगे इसलिये उनके ध्यान में दखल नहीं डाली जाय। तिब्बत से यहां पंहुंचे सोबसांग थिनले के भतीजे कुंगा थुटौप ने बताया कि उसके चाचा ने कहा था कि मृत्यु के तीन दिन तक किसी को देह उनका शव नहीं दिखाया जाय तथा उसे हाथ नहीं लगाया जाय और उसके बाद भी कम से कम तीन दिन तक पार्थिव देह को उसी ध्यान मुद्रा में रखा जाय। थुटौप ने बताया कि उसका चाचा सात साल की ही उम्र में सन्यासी या लामा बन गया था और बाल ब्रहमचारी था। धर्म ग्रन्थों का प्रकाण्ड विद्वान होने के साथ ही वह एक महान तपस्वी और भविष्यवक्ता भी था, जो कि षक्ल देखते ही आदमी का भूत वर्तमान और भविष्य तक बता देते थे। शाक्य केन्द्र के प्रवक्ता कुंगा रिनचेन ने बताया कि छठे दिन पूरे सन्त सम्मान के साथ सोबसांग की पार्थिव देह राजपुर स्थित तिब्बती ष्षमषान ले जायी गयी जहां विषिष्ट सन्तों की ही तरह अलग तरह की चिता मण्डाल बना कर ध्यानमुद्रा में बैठे हुये ही उनका दाह संस्कार कर दिया गया। जबकि सामान्य तिब्बती को चिता में लिटा कर जलाया जाता है। उन्होंने बताया कि तिब्बतियों के ष्षाक्य सम्प्रदाय की मान्यता है कि जिस स्थान पर आदमी प्राण त्यागता है वहां पर उसकी आत्मा ४५ दिन तक मंडराती रहती है। इसलिये इस अवधि में सोबसांग की वहां पूजा चल रही है। उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में लगभग 30 हजार तिब्बती रहते हैं। जोकि यहां एक दर्जन स्थानों पर रह रहे हैं। तिब्बत से भागने के बाद तिब्बतियों के सर्वोच्च गुरू दलाई लामा भी सबसे पहले देहरादून के मसूरी में ही आये थे जहां वह एक साल रहे और फिर उनका मुख्यालय हिमाचल के धर्मषाला चला गया।

Monday, September 15, 2008

प्रतिनियुक्ति पर अधिकारियों का चरागाह बना राज्य

राजेन्द्र जोशी
उत्तराखण्ड प्रदेश देश के अन्य प्रान्तों से नियत समय सीमा के लिए प्रतिनियुक्ति पर आए अधिकारियों का चरागाह बनता जा रहा है यही कारण है कि यहां एक बार जो अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर आ गया वह अपने मूल प्रदेश को जाने का नाम ही नहीं लेता। यही कारण है कि प्रदेश के वन विभाग तथा इससे जुड़ी अन्य परियोजनाओं में आज भी ऐसे दर्जनों अधिकारी हैं जो यहां मौज काट रहे हैं।
गौरतलब हो कि किसी भी प्रदेश में अधिकारियों की कमी अथवा भारत सरकार के नियमों के अनुसार किसी भी प्रांत के लिए आवंटित काडर के अधिकारियों को अन्य किसी भी प्रान्त में अपनी सेवाएं देने के लिए एक नियत समय के लिए प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाता रहा है। यह अवधि अधिकांशत: तीन साल के लिए ही होती है। लेकिन उत्तराखण्ड राज्य में प्रतिनियुक्ति पर आने वाले अधिकारी जो यहां एक बार आ जाते हैं वे यहां से जाने का नाम ही नहीं लेते हैं। यह सब केन्द्रीय आयोग तथा इन अधिकारियों की मिलीभगत से होता है। ऐसा नहीं कि यहां आने के लिए और किसी प्रदेश के और कोई अधिकारी तैयार नहीं होते हैं। एक जानकारी के अनुसार आज भी कई प्रदेशों को अपनी सेवाएं देने वालों का तांतां आयोग के समक्ष लगा रहता है। लेकिन आयोग में भी जिसकी गोटी होती है वहीं अधिकारी अपने मनचाहे प्रदेश को प्रतिनियुक्ति पा जाता है। जिसकी तय सीमा तीन साल होती हे लेकिन यहां भी अधिकारियों की सेटिंग ही काम आती है कि जिस प्रदेश में वह प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाता है वह प्रदेश उसके वहां सेवाएं देने क ी तय सीमा के बाद भी उस पर आपत्ति नहीं जताता, और अधिकारी उस प्रदेश में मौज काटते हैं। ऐसा ही यहां उत्तराखण्ड में हो रहा है।
भारतीय वन सेवा के दर्जनों ऐसे अधिकारी है जो तीन साल की समय सीमा पार हो जाने के बाद भी अपने मूल राज्य अथवा मूल विभाग को वापस जाने का नाम ही नहीं ले रहे हैं इनमें अतिरिक्त अपर प्रमुख वन संरक्षक, ग्राम वन पंचायत एवं संयुक्त वन प्रबंधक के पद पर बीते पांच साल से तैनात एसएस शर्मा, नोडल अधिकारी भूमि सर्वेक्षण के पद पर बीते छह साल से तैनात आर के महाजन, उपपरियोजना अधिकारी जलागम के पद पर बीते चार साल से ज्यादा समय से तैनात मीनाक्षी जोशी, मुख्यवन्य जन्तु प्रतिपालक के पद पर बीते सात साल से तैनात श्रीकांत चन्दोला, डा0 सुशीला तिवारी मेमोरियल वन चिकित्सालय में सचिव पद पर बीते पांच सालों से तैनात मौलिश मलिक, मुख्य वन संरक्षक के पद पर बीते पांच साल से तैनात प्रकाश भटनागर, परियोजना निदेशक जलागम परियोजना के पद पर बीते सात साल से तैनात डीजेके शर्मा ज्योज्सना सितलिंग जो सात साल से यहां तैनात हैं।

मुख्यमंत्री की आंखों में झोंकी धूल

राजेन्द्र जोशी
देहरादून : प्रदेश के काबिल प्रशासनिक अधिकारियों तथा भाजपा के ही कुछ एक दायित्वधारियों द्वारा मुख्यमंत्री की आंखों में धूल झोंकने का मामला प्रकाश में आया है। चर्चा है कि इस घोटाले में करोड़ों रूपयों की डील बताई जाती है। बीते कई दशकों से कुंभ मेले के दौरान श्रद्धालुओं की संख्या को देखते हुए उनके वाहनों की पार्किंग के लिए ऋषिकेश नगर के बीचोंबीच भरत मंदिर के मैदान से लगे लगभग पांच हेक्टेयर भूमि को पार्किंग से छोड़ने का इन अधिकारियों ने फरमान जारी किया ही था कि विभागीय प्रमुख सचिव ने इस डील पर ब्रेक लगा दिया और मामले की जांच मुख्यमंत्री से करने के आदेश दे डाले। इस मामले में उन्होने टिप्पणी की है कि मुख्यमंत्री को इस मामले में गुमराह किया गया है।
उल्लेखनीय है कि कुंभ मेले के दौरान लक्ष्मण झूला,ऋषिकेश, स्वर्गाश्रम, हरिद्वार आदि क्षेत्रों को प्रशासनिक आधार पर मिलाकर कुंभ क्षेत्र बनाया जाता रहा है। वहीं इस क्षेत्र के विकास के लिए हरिद्वार-ऋषिकेश विकास प्राधिकरण भी बनाया गया है जिसके उपाध्यक्ष तथा कुंभ मेलाअधिकारी एक ही हैं। इस लगभग पांच हैक्टेयर भूमि पर बीते कई दशकों से कुंभ मेले के दौरान आने वाले यात्रियों के वाहनों की पार्किंग तथा अस्थायी पुलिस चौकी व अस्थायी शौचालयों का निर्माण किया जाता रहा है। जिससे ऋषिकेश नगर सहित आसपास के क्षेत्रों पर यातायात का दबाव कम किया जाता है। इसे हीरालाल पार्किंग क्षेत्र भी कहा जाता है, और मास्टर प्लान में इस भूमि को पार्किंग के लिए आरक्षित भी किया गया है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार बीते कुछ दिन पूर्व देहरादून निवासी अतुल गोयल पुत्र मित्रसेन गोयल निवासी 55,गांधी रोड़ ने सचिव शहरी विकास को एक पत्र लिख कर मांग की कि उसकी भूमि खाता संख्या 338 जिसका क्षेत्रफल 4.856 हेक्टेयर है को कुंभ मेला हेतु पार्किंग के लिए पिछले कई सालों से आरक्षित किया गया है,को अवमुक्त करने की प्रक्रिया शुरू की जाय। जबकि सूत्रों ने बताया है कि यह भूमि अतुल गोयल की है ही नहीं यह भूमि वन विभाग की थी जिसे कई दशकों पूर्व कालीकमली ट्रस्ट को लीज पर दी गयी थी जिसक ी लीज अवधि समाप्त होने में अब कुल 17 साल शेष हैं। यह भूमि वर्ष 1935 में वन विभाग ने कालीकमली ट्रस्ट को 90 साल की लीज पर दी थी।
बताया जाता है कि इस बार प्रदेश के इन प्रशासनिक अधिकारियों ने इस भूमि को पार्किग से मुक्त करने के लिए व्यूह रचना की और मास्टर प्लान में पार्किंग के लिए नियत इस भूमि को डी नोटिफाईड करने के आदेश दे डाले। सूत्रों के अनुसार जिलाधिकारी हरिद्वार की आख्या 8832 पी08 एवं 4070 म 08247 दिनांक 23 मई 2008 ने अपने पत्र में कहा कि उक्त भूमि से दो- तीन किलोमीटर दूर वन विभाग तथा राजस्व विभाग की 6 हैक्टेयर भूमि वैकल्पिक व्यवस्था के लिए खाली है। जिसे कुंभ मेला के दौरान पार्किंग के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार जिलाधिकारी तथा सचिव द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित इस पत्र पर प्रमुख सचिव शहरी विकास ने कुछ स्पष्टीकरण मांगे और इसके बाद वे छुट्टी चली गयी। उन्होने वापस छुट्टी से आने के बाद देखा कि उक्त भूमि को सामान्य आधार बनाकर आवास सचिव ने इस भूमि को डी नोटीफाइड किए जाने के लिए मुख्यमंत्री को पत्रावली बनाकर पेश किया जिसे मुख्यमंत्री ने भी सचिव की अनुशंसा के आधार पर बीती 31 अगस्त 2008 को पार्किं ग से हटाने के आदेश दे डाले। सूत्रों के अनुसार इस मामले में एक सचिव तथा प्रमुख्य सचिव आवास में काफी नोंक झोंक भी हुई। जिसके बाद आवास सचिव फिर एक बार छुट्टी लेकर चली गयी है। यहां सूत्रों ने यह भी जानकारी दी है कि इस मामले में मुख्यमंत्री द्वारा नामित एक दायित्वधारी व्यक्ति भी शामिल है। जो शासन प्रशासन पर अपने मुख्यमंत्री के करीबी होने की बात कह कर इस मामले की फाईल को पंख लगा कर उड़ा रहा है। इस प्रकरण को लेकर आजकल सत्ता के गलियारों में चर्चाओं का बाजार गर्म है कि इस प्रकरण में जिलाधिकारी हरिद्वार से लेकर सचिव तथा भाजपा के कुछ नेताओं ने मोटी रकम वसूली है। अब इस मामले में मुख्यमंत्री के बेंगलुरू से लौटने की प्रतीक्षा की जा रही है।
वहीं इस मामले में प्रमुख सचिव शहरी विकास ने 2 सितम्बर को मुख्यमंत्री को दी गयी अपनी टिप्पणी में साफ-साफ कह दिया है कि प्रश्गत भूमि के स्थान पर जिस दूसरी भूमि की बात की जा रही है वह भौतिक रूप में शासन को उपलब्ध नहीं है। वहीं उन्होने कहा है कि वन विभाग की भूमि हेतु सुप्रीमकोर्ट की कमेटी की क्लीयरेंस चाहिए होती है। उन्होने कहा कि ऐसी स्थिति में प्रश्नगत भूमि डि नोटिफाईड करके वैकल्पिक व्यवस्था हेतु उपलब्ध न होने पर कुंभ 2010 में कितनी कठिनाई होगी अनुमान लगाना मुश्किल है भाजपा राज्य में।
मामले में कांग्रेस के आला नेताओं का कहना हैे कि सरकार आए दिन घोटालों में फंसती जा रही है। मुख्यमंत्री को गुमराह कर सचिव अपनी इच्छानुसार डीलों में लगे हैं। यही कारण है कि हम हमेशा प्रशासन के अनियंत्रित होने की बात कह रहे हैं। उन्होने कहा कि यह तो एक उदाहरण मात्र है और भी कई डील यहां तैनात सचिव कर रहे हैं।

Saturday, September 6, 2008

भारत सरकार तक के आदेश भी नहीं मानते भ्रष्ट अधिकारी

राजेन्द्र जोशी देहरादून : उत्तराखण्ड में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों को भारत सरकार के आदेश कोई मायने नहीं रखते। ताजा मामला वेस्ट बंगाल प्रदेश से जुड़ा है जहां का एक आईएस अधिकारी वहां जाने को तैयार ही नहीं है जबकि इस मामले में वेस्ट बंगाल सरकार तथा केन्द्र ीय निदेशालय उत्तराखण्ड सरकार को यह साफ कह चुका है कि जितनी जल्दी हो उनके अधिकारी को तुरंत कार्यमुक्त करते हुए उनके मूल कैडर राज्य को वापस भेजा जाय। लेकिन अधिकारी है कि वह जाने का नाम ही नहीं ले रहा है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि इस प्रशासनिक अधिकारी को जब यहां मलाई खाने को मिल रही है तो वह बंगाल मठ्ठा पीने को भला क्यों जाय। बात भी सही है 90 बैच के इस अधिकारी ने यहां पर प्रतिनियुक्ति के दौरान जितना माल काटा है उसे ठिकाने लगाने को भी तो समय चहिए, केन्द्र व बेस्ट बंगाल सरकार है जो उसे समय ही नहीं देना चाहते। बात इस अधिकारी के एमडीडीए में उपाध्यक्ष के कार्य से ही शुरू की जाए। आप लोगों ने देहरादून नगर क ी सडक़ों के बीच में डिवायडरों पर जो गमलों में पेड़ देखे होगें वे इन्ही अधिकारी के शासनकाल में खरीदे गए हैं। चर्चा तो यहां तक हक कि 100 -200 रूपयों में आमतौर पर निजी नर्सरियों में बिकने वाले ये पेड़ पौधे 1500 रूपए प्रति क ी दर पर खरीदे गए। इनमें कितना गोलमान हुआ है यह तो जांच का विषय हो सकता है लेकिन कितने नीचे गिर कर एक प्रशासनिक अधिकारी पैसा कमाना चाहता है यह इसका एक उदाहरण मात्र है। इतना ही नहीं इस अधिकारी पर दून विहार आवासीय कालोनी में एक मकान को हथियाने का आरोप भी है। जिसे इसने अपने किसी रिश्तेदार के नाम औने-पौने दामों में खरीदा है। जहां तक इनके दूसरे कार्यकाल वन सचिव के दौरान की बात की जाए तो आप लोगों को राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के विवादों में आने की बात जरूर आ गई होगी। कैसे सदस्य सचिव सीबीएस नेगी को हटाया गया। और कैसे पर्यावरण अधिकारी टीबी सिंह को सदस्य सचिव के साथ ही शक्तिशाली बनाया गया यह तो पुरानी बात है लेकिन उस अधिकारी को हटाने में एक सरकार को किस तरह नाकों चने चबाने पड़े यह किस्सा सत्ता के गलियारों में खासा चर्चा का विषय रहा है। इतना ही नहीं आजकल राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में सदस्य सचिव के लिए चयन प्रक्रिया जोरों पर है इसी अधिकारी ने एक बार फिर यहां आवेदन किया हुआ है क्योंकि उसे पता है कि उसके मदद करने वाले यहां बहुत है जिन्हे उसने सत्ता में रहते हुए रेवडिय़ा खिलाई हैं। जबकि ईधर इस चयन प्रक्रिया को लेकर भाजपा कार्यसमिति के सदस्य तथा पूर्व विधायक राजेन्द्र सिंह ने मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर इस प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान लगा दिया है कि इस पर के लिए योग्यता तथा आयु में हेराफेरी की गयी है। उन्होने मुख्यमंत्री को दिए पत्र मे ंकहा है कि इसमें जल अधिनियम 1974 की धारा 4 (2) एफ ,तथा उच्चतम न्यायालय की मौनेटरिंग कमेटी के निर्देश 16 अगस्त 2005 तथा उत्तराखण्ड शासन की नियमावली 16 अगस्त2002 का उलंघन किया गया है। बहरहाल अब यह अधिकारी अपने मूल कैडर राज्य को नहीं जाना चाहता और आजकल अपने को यहां पर ही तैनात रखने के लिए मुख्यमंत्री सचिवालय में तैनात कर्मचारियों तथा अधिकारियों की गणेश परिक्रमा कर रहा है।

Thursday, September 4, 2008

56 घोटाले और जांच आयोग का सच

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी राजेन्द्र जोशी देहरादून: कांग्रेस शासन में हुए 56 घोटालों के लिए बनाए गए जस्टिस एएन वर्मा ने इस्तीफा तो दे दिया लेकिन वे इस इस्तीफे के पीछे कई ऐसे सवाल छोड़ गए है जिनका जवाब अब सरकार को देना होगा है कि आखिर ऐसे कौन से कारण थे जो वर्मा को यह पद छोडऩा पड़ा। भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस से सत्ता हथियाने में उनके शासन काल के दौरान 56 घोटालों की बात उठायी थी और जनता से चीख-चीख कर यह कहा था कि सत्ता में काबिज होते ही वह इन 56 घोटालों के प्रकरण पर दूध का दूध और पानी का पानी कर घोटालों मे लिप्त लोगों को जेल के भीतर पहुंचा कर ही दम लेंगे। विधान सभा चुनाव भी हुए सरकार भी भाजपा की बनी लेकिन सरकार ने जिस जस्टिस एएन वर्मा को इन 56 घोटालों की जांच की कमान सौंपी वे साल भर बाद ही स्वास्थ खराब होने की बात कहकर इस आयोग से अपना पिंड छुड़ाकर चल निकले। कहा जाता है हमाम में सब नंगे हैं। यह कहावत जस्टिस वर्मा के सामने तो सच ही निकली। जब घोटालों में सब के सब ही लिप्त हों तो बेचारा जांच आयोग तो खुद ही अपाहिज होगा, और हुआ भी यही। सूत्रों के अनुसार जस्टिस वर्मा ने जब इन घोटालों की जांच के लिए तमाम विभागों से पत्राचार शुरू किया तो उन्हे यह आभास तक नहीं था राज्य की नौकरशाही इतनी बेलगाम हो चुकी है कि उसके सामने जब मुख्यमंत्री के आदेश ही कोई मायने नहीं रखते तो बिना नाखून तथा दांत वाले आयोग की उनके सामने क्या बिसात। हुआ भी यही सैकड़ों बार पत्राचार करने के बाद भी विभागीय अधिकारियों से लेकर सचिवों तक ने उनके पत्रों का जवाब देना गवारा नहीं समझा, तो ऐसे में वे यहां अकेले बैठकर करते तो क्या करते। इतना ही तीन दशक से ज्यादा न्यायिक सेवा में रहकर नाम कमाने वाले जस्टिस वर्मा ने जब इन विभागीय अधिकारियों तथा सचिवों को इन घोटालों से सम्बधित जानकारियों के लिए पत्रों के बाद इनक े उत्तर पाने के स्मरण पत्र तक भेजे तो उनका भी वही हश्र हुआ तो पूर्व में भेजे गए पत्रों का हुआ शायद वे भी रद्दी की टोकरी की भेंट चढ़ गए। ऐसे में एक जांच अधिकारी वह भी न्यायिक सेवा का कैसे इस आयोग का अध्यक्ष रहता सो उसने कोई न कोई बहाना तो बनाना ही था तो उन्हेाने स्वास्थ्य का बहाना बनाकर यहां से अपना पिंड छुड़ा दिया। जस्टिस वर्मा तो गए लेकिन अब जो नए साहब आएंगें जैसा कि मुख्यमंत्री कहते है कि नए अध्यक्ष बनाए जाएंगे ऐसे में जब उनके साथ भी ऐसा होगा तो इस बात की क्या गारंटी है कि वे भी यहां टिक कर इस मामले की जांच को अंजाम तक पहुंचा पाएंगे। जिन घोटालों की बैसाखियों के सहारे भाजपा सत्ता तक पहुंची। ऐसे में अब एक बात औ उठ रही है कि सरकार इसी आयोग में नए अध्यक्ष का चुनाव कर इस आयोग का कार्यकाल बढ़ाएगी। और वहीं यह बात भी सत्ता के गलियारों में तैर रही है कि हो सकता है सरकार अब कोई नया आयोग ही बना डाले। लेकिन जिन परिस्थितियों में जस्टिस वर्मा ने इस्तीफा दिया उससे तो यह साफ ही लगता है कि जिन 56 घोटालों की बात भाजपा ने की थी वह सही थी और उसमें वे सभी अधिकारी तथा सचिव तक लिप्त थे जिन्होने जस्टिस वर्मा का जांच में असहयोग किया था। कहा जाता है राजनीति में कोई स्थाई मित्र अथवा स्थाई दुश्मन नही होता । इन 56 घोटालों में से एक तिवारी सरकार का आबकारी घोटाला। तत्कालीन आबकारी मंत्री जब कांगेस में थे तो भाजपाईयों को वे सबसे ज्यादा भ्रष्टï तथा चर्चित आबकारी घोटाले का सूत्रधार लगते थे लेकिन राजनीतिक मजबूरीवश जब उन्हेाने भाजपा का दामन सभांलना पड़ा तो वे ही भाजपाईयों की नजर में सबसे ज्यादा ईमानदार बन गए। तो ऐसे में जांच आयोग के अध्यक्ष के सामने तो परेशानी होनी ही थी। जिनके खिलाफ वे सबूत ढूंढ रहे थे अब उन्हे ही बचाने की जिम्मा उनके कंधों पर आ गया ऐसे में इस्तीफा नहीं देते तो क्या करते?

Friday, August 29, 2008

फूलों की घाटी का अस्तिव संकट में


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
राजेन्द्र जोशी
देहरादून : उत्तराखण्ड की फूलों की घाटी में फूलों से ज्यादा ऐसी घास उग आयी है कि इसके कारण यहां उगने वाले फूलों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है। वैसे तो पूरी की पूरी भ्यूंडार घाटी इस घास से परेशान है लेकिन फूलों की घाटी जिसका अंर्तराष्ट्रीय महत्व है को लेकर पर्यावरणविद से लेकर वन विभाग तक के आला अधिकारी इसके कारणों को खोजने में लगे हैं। पौलीगोनियम जिसे स्थानीय भाषा में अमेला अथवा नाट ग्रास कहा जाता है इस फूलों की घाटी को अपने चपेट में ले चुकी है। इसे जड़ से समाप्त करने के लिए अब प्रदेश के वन विभाग ने इसे उखाड़ने के लिए एक कार्ययोजना बनाई है, जिसपर कार्य आरम्भ भी हो चुका है।
प्रदेश के ऋषिकेश बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर गोविन्दघाट से सिक्खों के पवित्र तीर्थ हेमकुण्ड को जाने वाले मार्ग मेें घंघरिया से पांच किलोमीटर बायीं ओर लगभग 87.5 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले इस क्षेत्र में लगभग पांच सौ से ज्यादा फूलों की प्रजातियां कभी यहां पाई जाती थी। आज इस घाटी के अधिकांश भाग में इन मोहक फूलों की जगह पौलीगोनियम घास जिसे स्थानीय भाषा में अमेला कहा जाता है, फैल चुका है। यह घास घाटी में उगने वाले फूलों की अन्य प्रजातियों पर क ैंसर की तरह लग गया है। इसके क ारण फूलों की घाटी का अस्तित्व ही समाप्त होने को हैं। वहीं घाटी में इससे मिलती-जुलती पौलीस्टाइका (सरों) घास , पार्थीनियम (गाजर घास ) भी यहां उगने लगी है। फूलों की घाटी में बहने वाले बामनदौड़, स्विचंद आदि नालों तक में पौलीगोनियम घास फैल चुका है। इस क्षेत्र में कई प्रकार की जड़ी बूटियां भी अब देखने को मिलती थी जो इस तरह की घास के उग जाने के कारण अब नहीं दिखाई देती।
उल्लेखनीय है कि 6 नवम्बर 1982 में फूलों की घाटी को नन्दादेवी बायोस्फेयर रिजर्व (नन्दादेची जीवमंडल विशेष क्षेत्र) घोषित किया गया था और तभी से इस क्षेत्र मे पशुओं के चुगान तथा प्रवेश को प्रतिबंधित भी कर दिया गया था। यह इसलिये किया गया था ताकि पशुओं के पैरों से यहां मिलने वाले फू लों की विशेष प्रजातियां कहीं खत्म न हो जांए। लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि पशुओं की आवातजाही न होने कारण भी इस क्षेत्र में फूलों की संख्या में कमी हुई है। इनका कहना है कि भेड़-बकरियों के आने जाने तथा उनके गोबर से यहां पैदा होने वाले फूलों को खाद तो मिलती ही थी साथ ही बकरियों के खुरों से बीज भी इधर से उधर होने पर अन्य प्रजातियां विकसित होती थी। इन्हीं लोगों का कहना है कि यहां उगने वाले विनाशकारी घास की जो प्रजातियां आज फूलों की घाटी में उग रही उन्हे उस दौरान यहां आने वाले जानवर ,भेड़-बकरियां चुग लेती थी।
वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार यहां उगने वाले नुकसान देह पौधे की लंबाई ज्यादा होने के कारण छोटी प्रजाति के पुष्प इनके नीचे नहीं पनप पाते हैं। नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क के डीएफओ श्रवण कुमार ने माना कि पौलीगोनियम यहां पनप रहा है और इसके जल्दी बढने से छोटी प्रजाति के फूल नहीं खिल पा रहे। उन्होंने बताया कि पौलीगोनियम की करीब चार प्रजातियां फूलों की घाटी में विकसित हुई हैं। इनके अनुसार यदि इस तरह की घास को यथाशीघ्र इस क्षेत्र से उखाडा नहीं गया तो एक दिन यह फूलों की घाटी जहरीली घास की घाटी में बदल जाएगी।

Thursday, August 28, 2008

नेपाल के बदले हालातों से सुरक्षा एजेंसियां सतर्क

राजेन्द्र जोशी
देहरादून: माओवादी नेता प्रचंड के नेपाल की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ताजपोशी के बाद देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर सुरक्षा एजेंसियों की चिंता बढ़ गई है। खुफिया विभाग आईएसआई के नेपाल के रास्ते घुसपैठ की संभावना पहले ही जताता रहा है। लिहाजा भारत-नेपाल सीमा पर अब कड़ी चौकसी करने का निर्णय सीमा क्षेत्र का कार्य देख रहे अधिकारियों ने लिया है। इसके तहत सश सीमा बल (एसएसबी) को सीमा पर समन्वय का काम अधिक जिम्मेदारी से निभाने और बार्डर पर एसएसबी की महिला विंग को भी तैनात करने का निर्णय लिया गया है। नेपाल में हाल के दिनों में हालात तेजी से बदले हैं,भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले प्रचंड को वहां की जनता ने बागडोर सौंपी है। साथ ही उनकी पहली यात्रा भारत की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करने वाले चीन के लिए ही हुई है, वहीं नेपाल के प्रधानमंत्री के जल्द ही भारत की यात्रा पर आने की जानकारी नैपाली मीडिया से मिल रही है जिसमें उन्होने कहा है कि भारत की यात्रा उनकी पहली राजनीतिक यात्रा होगी। जबकि अब तक नेपाल के प्रधानमंत्री पहली यात्रा भारत की ही करते आये हैं। इसके अलावा नेपाल के अर्धसैनिक बलों में माओवादियों की तैनाती के फरमान ने भी भारत के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। सूत्रों के मुताबिक खुफिया तंत्र ने भी केन्द्र सरकार को नेपाल की बदली परिस्थितियों से देश में नेपाल सीमा से घुसपैठ तेज होने की संभावना जतायी है। इसे लेकर सरकार भी सक्रिय हो गयी है। सूत्रों के मुताबिक दोनों देशों के अधिकारियों की बैठकों के साथ ही बीते दिनों लखनऊ में उच्च स्तरीय बैठक आयोजित की गयी। इसमें नेपाल सीमा की परिस्थितियों को लेकर गंभीर मंथन किया गया। सुरक्षा के लिए खतरा होने के कारण एसएसबी अधिकारियों को सीमा पर कार्यरत विभागों के समन्वय के काम में गंभीरता बरतने का निर्णय लिया गया। उल्लेखनीय है कि नेपाल सीमा पर कार्यरत एसएसबी, खुफिया तंत्र, कस्टम, सिविल पुलिस व जिला प्रशासन के बीच एसएसबी ही समन्वय स्थापित करने का काम करती हैं। आमतौर पर इसकी सप्ताह भर के अंतराल में ही बैठक होती है। लेकिन अब जल्द बैठकें करने को कहा गया है। इसके अलावा नेपाल सीमा पर महिलाओं के माध्यम से तस्करी होने के मुद्दे पर भी गंभीर मंथन हुआ है। लिहाजा सीमा पर महिला विंग तैनात करने का निर्णय लिया गया। इस विंग की एक बटालियन वर्तमान में हिमांचल में प्रशिक्षण भी ले रही है। इसके अगले साल शुरुआत में ही उत्तराखंड से लगी नेपाल सीमा पर तैनात होने की संभावना है। इसके अलावा खुफिया तंत्र को और सक्रिय कर दिया है। एसएसबी के एक अधिकारी ने बताया कि प्रचंड माओवादी नेता हैं, भारत का माओवाद भी काफी हद तक नेपाली माओवाद की विचारधारा से प्रेरित है। प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने के बाद आईएसआई को देश में नेपाल के रास्ते घुसपैठ करने का अवसर मिल सकता है। जिस पर कड़ी नजर रखने की जरूरत होगी।

खुफिया तंत्र को पता ही नहीं

राजेन्द्र जोशी
देहरादून: प्रदेश सरकार का खुफिया तंत्र सोया है क्या? 44 चीनी सैनिक 25 घोड़ों के साथ अत्याधुनिक संचार उपकरणों तथा हथियारों सहित राज्य की भारत-चीन सीमा के छह किलोमीटर अंदर तक आ गए और खुफिया तंत्र कहता है कुछ नहीं हुआ। उत्तराखण्ड सरकार का गुप्तचर तंत्र कुछ भी कहता रहे लेकिन उत्तराखण्ड के चमोली जिले से लगी भारत चीन सीमा पर कुछ तो गड़बढ़ जरूर है। उल्लेखनीय है कि देश की अरूणाचल से लेकर कश्मीर क्षेत्र तक भारत की सीमाएं कहीं न कहीं चीन,पाकिस्तान अथवा नैपाल से मिलती ही है। अरूणाचल क्षेत्र में चीनी दखल तथा कारगिल क्षेत्र में पाक सेनाओं का भारत केी सीमा के भीतर तक आ जाने के कारण ही कारगिल युद्घ का होना देश की खुफिया एजेंन्सियों का नकारापन ही साबित करता है। यही कारण रहा कि भारत को कारगिल जैसा युद्घ झेलना पड़ा। इसी खुफिया तंत्र की एक और नाकामी उत्तराखण्ड के इस शांत क्षेत्र में भी देखने को मिली। खुफिया तंत्र इस मामले को पिछले कई दिनों से छिपाता फिर रहा था लेकिन गृह विभाग के केन्द्र से पूछने के बाद यह प्रकरण सुर्खियों में आ पहुंचा है। यहां बताया जा रहा है कि चीनी सैनिक पिछले कई दिनों से यहां घुसपैठ करने की तैयारी में हैं। खुफिया सूत्रों की मानें तो पिछले दिनों 44 सश चीनी सैनिकों के 25 घोड़ों के साथ जिला चमोली से लगी भारत-चीन सीमा से भारतीय सीमा में घुसपैठ की कोशिश की थी। लेकिन उस समय से वे वहां सफल नहीं हो पाए थे। कहा जा रहा है कि उस समय तो चीनी सैनिकों ने जीरो प्वाइंट पर रूक कर वहां भारत की फौज की गतिविधियों पर नजर रखने के उद्देश्य से संचार के लिए एंटीना तक खड़ा कर दिया। शेष सैनिकों ने भारतीय सीमा में चार सौ मीटर अंदर आकर टैंट भी गाढ़ दिए थे। कहा तो यहां तक जा रहा है कि ये सैनिक तीन दलों में बंटकर भारत की सीमा के भीतर होतीनाला तक आ गये थे जो कि भारतीय सीमा में जीरो प्वाइंट से करीब छह किलोमीटर अंदर है। यह भारतीय सीमा में सश चीनी सैनिकों की घुसपैठ की सबसे बड़ी कार्रवाई मानी जा रही है। आश्चर्य की बात है सीमा पर भारतीय तिŽबत सीमा बल के जवान तैनात हैं। खुफिया विभाग को भी इस घुसपैठ की खबर कई दिनों बाद मिली। राज्य गृह विभाग ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को जानकारी देते हुए पूछा है कि वे रक्षा व विदेश मंत्रालय से दिशा निर्देश लेकर बताएं कि प्रदेश सरकार इस मामले में अब क्या कदम उठाए। राज्य खुफिया विभाग के सूत्रों ने बताया कि जनपद चमोली के अंतर्गत भारत-चीन की सीमा पर 44 सश चीनी सैनिकों के 25 घा़ेडों के साथ तुनजुनला पास व होतीनाला तक भारतीय सीमा में घुसपैठ की घटना अन्य घटनाओं के मुकाबले में सबसे बड़ी है। खुफिया विभाग की रिपोर्ट शासन को मिलने के बाद उसने केंद्रीय गृह मंत्रालय को पत्र लिख कर अवगत कराया कि इस मामले में विदेश मंत्रालय व रक्षा मंत्रालय से दिशा निर्देश लेकर उन्हें निर्देशित करें कि प्रदेश सरकार इस मामले में क्या कदम उठाए। बताया जा रहा है कि इस घुसपैठ को अभी कुछ ही दिन हुए कि बीती रोज एक बार फिर से उसी सीमा पर चीनी सैनिकों ने भारतीय सीमा में घुसने की कोशिश की है। इस मामले को अब खुफिया एजेंसियों ने गभ्भीरता से लिया है। इस समय राज्य सरकार व केन्द्र सरकार की खुफिया एजेंसियां लगातार सीमा पर नजर रखे हुए है। बताया जा रहा है कि रॉ के अधिकारियों का एक दल तो खास तौर पर जोशीमठ, माणा गांव तथा मलारी क्षेत्र में डेरा डाले हुए है।

Friday, August 22, 2008

जलविद्युत परियोजनाओं का सच

राजेन्द्र जोशी
उत्तराखण्ड की जलविद्युत परियोजनाओं को निजी हाथों में देने का राज्य के बिजली कर्मचारी संगठन भले ही विरोध कर रहे हैं लेकिन इसके लिए कौन दोषी है इन्होने कभी नहीं सोचा। प्रदेश के मुख्यमंत्री भले ही कर्मचारियों के दबाव के कारण इनको निजी हाथों में देने के फैसले पर अभी निर्णय न किए जाने की बात कर रहे हैं लेकिन वास्तविकता तो यह है कि इन सभी परियोजनाओं को यहां कार्यरत अधिकारियों सहित कर्मचारियों ने दुधारू गाय की तरह उपयोग किया। राज्य की 22 जलविद्युत परियोजनाओं में से 18 परियोजनांए वर्तमान में खराब हालात से गुजर रही है। इसके लिए यहां कार्यरत अधिकारी तथा कर्मचारी सभी दोषी है जिन्होने इनको इस स्थिति में पहुंचाया है। यदि जलविद्यूत परियोजनाओं का निर्माण से अस्तित्व में आने तक के इतिहास पर गौर किया जाए तो शायद ही ऐसा कोई दिन होगा जिस दिन इन परियोजनाओं में से किसी एक भी परियोजना ने अपनी क्षमता के बराबर विद्युत का उत्पादन किया हो। इन तीस -पैतीस सालों तक परियोजना के कार्य देख रहे अभियंताओं ने इन परियोजनाओं को दुधारू गाय की तरह प्रयोग किया। लालू के चारे घोटाले की तरह कभी इन्होने नहरों के मरम्मत के नाम पर पैसे की बंदरबांट की तो कभी टरबाइन के मरम्मत के नाम पर। जानकार तो यहां तक बताते हैं कि इन सभी परियोजनाओं की रिपोर्ट का अध्ययन किया जाय तो पता चलता है कि रोज किसी न किसी परियोजना की विद्युत टरबाइन खराब ही मिलेगी, तो कभी नहरों की मरम्मत के कारध पूरी की पूरी परियोजना बंद मिलेगी। परियोजनाओं में व्याप्त भ्रष्टïाचार का ताजा उदाहरण मनेरी भाली फेस दो में साफ है। तो यहां भी किसी बड़े घोटाले से इंकार नहीं किया जा सकता है। इस परियोजना को बीते माह इसलिए बंद करना पड़ा था कि इसके चेनल में रेत इक ठ्ठïा हो गया था जिसके लिए अभी तक टेंडर नहीं हुए है जबकि आधिकारिक जानकारी के अनुसार यह प्रक्रिया में हैं। लेकिन अधिकारियों की जल्दबाजी का नमूना यहां तब देखने को मिला कि टेडर अभी हुए नहीं, यह भी पता नहीं कि कौन फर्म इस कार्य के लिए टेंडर डालेगी, किसके रेट न्यूनतम होंगे और किसे कार्य आबंटित ही किया जाएगा। लेकिन प्रक्रिया के पूरी होने से पहले ही दिल्ली की एक कम्पनी की मशीनें यहां तक पहुंच चुकी हैं। इसका साफ मतलब है कि विभागीय अधिकारी तथा कर्मचारियों की मिली भगत हो चुकी है तथा टेंडर डाले जाने से पहले ही तय हो चुका है कि किसे कार्य आवंटित किया जाना है। यह तो एक बानगी है राज्य की अन्य तमाम जलविद्युत परियोजनाओं के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। चीला जलविद्युत परियोजना का मामला एक बार सन् 1998 में तब उठा था जब इस परियोजना के बैराज पर लगने वाले वेयरिंग को बाजार भाव से हजारों रूपए ज्यादा में खरीद किया गया। इस मामले में जांच की गयी थी तो पता चला था कि जो वेयरिंग इन बैराज के गेटों को खोलने तथा बंद करने में प्रयोग किए जा रहे थे वे सामान्य एसकेफ कम्पनी के थे और जिनकी कीमत बाजार में मात्र 13 सौ रूपये प्रति नग थी लेकिन विभागीय अधिकारी तथा कर्मचारियों की मिलीभगत से ये बेयरिंग 13 हजार रूपए प्रति नग की दर से दिल्ली की किसी फर्म से खरीदे जा रहे थे। प्रदेश के बुद्घिजीवी लोगों का कहना है कि इसी तरह से जेब भरने की प्रवृति ने इन जल विद्युत परियोजनाओं का आज इस मुकाम तक पहुंचा दिया है कि सरकार को भी अब इन पर खर्च करने में सोचना पड़ रहा है। अधिकारी तथा कर्मचारी अपनी कमाई बंद होती देख सरकार के खिलाफ ही लामबंद होते नजर आ रहे हैं लेकिन वे इस पर जरा भी नहीं सोच रहे हैं कि आखिर इन परियोजनाओं को इस मुकाम तक पहुंचाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उन्हे आत्म चिंतन करने की जरूरत है कि आखिर सरकार अब यदि इन पर पैसा खर्च करेगी तो वह भी इन्ही की जेबों से ही जाएगा। समय पर यदि इन्होने इन परियोजनाओं के साथ ईमानदारी की होती तो आज इस तरह के कदम उठाने की जरूरत न होती। और राज्य वासियों को सस्ती बिजली मिलती।

Wednesday, August 20, 2008

हालात पर केन्द्र भेजेगा पर्यवेक्षक

राजेन्द्र जोशी
देहरादून : उत्तराखण्ड में मचे सत्ता संघर्ष को देखते हुए केन्द्रीय आलाकमान ने पंचायत चुनावों के बाद राज्य में पर्यवेक्षक भेज स्थिति का जायजा लेने का मन बना लिया है। जबकि बदले हालातों में राज्य में अभी नेतृत्व परिवर्तन की संभावना भी कहीं नजर नहीं आती। लेकिन इस घमासान से मुख्यमंत्री गुट ने जरूर सबक लिया है और वह अब अपनी गलतियों को सुधारने में जुट गया है। इसी क्रम में सरकार ने बीते रोज मुख्यमंत्री सचिवालय में एक और सचिव की नियुक्ति के साथ शिकायतों पर गौर करने का संकेत दिया है। वहीं दूसरी ओर विधायकों के आक्रोश को ठंडा करने के उद्देश्य से सरकार ने उन तमाम पदों की सूची बनाने के निर्देश सचिवों को दिए हैं जो लाभ की श्रेणी में नहीं आते हैं। वहीं एक ओर यह भी चर्चा है कि कुछ एक दायित्वधारियों से दायित्व वापस भी लिए जा सकते हैं।
प्रदेश में उपजे राजनीतिक घटनाक्रम से भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व भी सहमा हुआ है और राज्य के हित में वह इसे अच्छा नहीं मानता। यही कारण है कि केन्द्र ने इस समूचे मामले को बड़ी ही गंभीरता से लिया है। सूत्रों की मानें तो केन्द्र ने राज्य के दोनों ही गुटों को इसके लिए दोषी माना है। उसका मानना है कि मुख्यमंत्री की ओर से भी कुछ गलतियां हुई हैं तो इसके जवाब में दूसरी ओर से भी गलतियां की गयी हैं। मामले की नजाकत को भांपते हुए केन्द्र ने पंचायत चुनाव के बाद राज्य में केन्द्रीय पर्यवेक्षक भेजने की सोची है। जो राज्य में उपजी स्थिति का बारीकी से आकलन करेगा। इस बीच सूत्रों ने जानकारी दी है कि कुछ नेता केन्द्रीय नेताओं के सम्पर्क में अभी भी हैं और वे अपनी सफाई पेश करने दिल्ली भी जा चुके हैं।
वहीं दूसरी ओर केन्द्रीय नेतृत्व से निर्देश के बाद मुख्यमंत्री ने भी अपनी कार्यप्रणाली में परिवर्तन करने की सोची है। प्राप्त जानकारी के अनुसारउन्होने विरोधियों द्वारा प्रचारित अपने तथाकथित किचन केबिनेट पर भी लगाम लगाने के क्रम में दो दायित्वधारियों से दायित्व वापस लिये जाने की भी चर्चा है।
भाजपा की प्रदेश सरकार के काम-काज को लेकर मन्त्रियों सहित लगभग दो दर्जन विधायकों की आलाकमान में दस्तक देने को लेकर सूबे की राजनीति गर्मा गयी थी। मीड़िया में आई रिपोर्टों के अनुसार विधायकों ने आलाकमान से मुख्यमंत्री सहित उनके सचिव एवं किचन केबिनेट की शिकायत की थी। हालांकि किसी ने भी इसकी पुष्टि नहीं की है। मामले में मुख्यमंत्री ने तो साफ कहा कि परिवार में मतभिन्नता हो सकती है, किन्तु शिकायत मिलने पर दूर करने का प्रयास किया जायेगा।
सूत्रों की माने तो सत्ता की समानान्तर चाबी रखने वाले मुख्यमंत्री के सचिव व उनकी किचन केबिनेट के प्रति जन प्रतिनिधियों में खासा नाराजगी थी। दिल्ली दरबार की ओर से मुख्यमंत्री को हालात सामान्य करने की हिदायत के बाद मुख्यमंत्री सचिवालय में एक अतिरिक्त सचिव की नियुक्ति की गयी है, जिनका कार्यकाल 31 अक्टूबर को समाप्त हो रहा है। जहां तक मुख्यमंत्री के सचिव प्रभात कुमार सारंगी के लम्बी छुट्टी पर जाने की बात हो रही थी तो इस पर प्रदेश के सूचना विभाग ने ही विवाद पैदा कर दिया सूचना विभाग ने बीेते दिन विज्ञप्ति जारी कहा था कि वे छुट़टी जा रहे हैं बाद में इसी विभाग ने दूसरे दिन एक और बयान जारी किया कि वे छुट़टी पर नहीं जा रहे हैं।
इस बीच अब विधायकों की मुख्यमंत्री के किचन केबिनेट के सदस्यों के प्रति नाराजगी को देखते हुए मुख्यमंत्री के निकट दो दायित्वधारियों से दायित्व वापस लिये जाने की खासी चर्चा है। चर्चा तो यह भी है कि इन दो दायित्वधारियों को दायित्व मुक्त करने का मामला सरकार के आपदा प्रबन्धन से जुड़़ा बताया जा रहा है।
पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी ने दिल्ली दरबार से वापस आने के बाद मीडियाकर्मियों से मिलने से परहेज किया है। स्थिति यह है कि यहां से मंत्रियों को दिल्ली दरबार तलब किया जा रहा है, किन्तु कोई भी दिल्ली से हुई चर्चा के सम्बन्ध में बताने को तैयार नहीं है। वहीं यह भी पता चला है कि बीते दिन प्रदेश अध्यक्ष बच्ची सिंह रावत अपनी प्रदेश कार्यकारिणी के साथ केन्द्र के निर्देश पर भगत सिंह कोश्यारी को मनाने उनके घर गए थे। इनमे कितनी सुलह सफाई हुई यह तो पता नहीं चल पाया है लेकिन इससे ण्क बात तो साफ ही हो गयी है कि प्रदेश भाजपा को अब भी भगतदा के कद को कम करके नहीं आंकना चाहिए। वहीं सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार केन्द्रीस नेताओं ने इस समूचे प्रकरण के लिए प्रदेश अध्यक्ष बच्ची सिंह रावत को भी जिम्मेदार बताते हुए उन्हे भी खासी लताड़ लगाई है और आलाकमान ने दिल्ली तलब किये गये सभी वरिष्ठ नेताओं को पंचायत चुनाव के दौरान असन्तुष्ट गतिविधियों में लिप्त रहने के बजाय पंचायत चुनाव में पूरी जी जान से जुटने का निर्देश दिया है।

किसी की आंखों के तारे तो किसी की किरकिरी

राजेन्द्र जोशी
देहरादून : राजधानी देहरादून का राजनैतिक तापमान जो क्या बढ़ा तीन विधायकों की तो मौज ही आ गयी। ये तीनों विधायक आजकल मुख्यमंत्री की आंखों के तारे बने हुए हैं। तो दूसरे गुट की आंखों की किकिरी। ये जिस पर हाथ रख देते हैं उन्हे वह सब कुछ मिल रहा है तो इन्हे भला असंतुष्टï गुट में जाने का क्या फायदा।
मुख्यमंत्री के राजनीतिक हलचल के बीच बीते दिनों दिल्ली से लौटने के बाद से राजपुर क्षेत्र के विधायक गणेश जोशी, धनोल्टी के विधायक खजान दास तथा बाजपुर के विधायक अरविंद पाण्डे उनके साथ खड़े दिखाई दिए थे। इन विधायकों में से दो लोग तो दोनों गुटों से सम्पर्क रखे हुए हैं। वह इसलिए कि कहीं पासा पलट गया तो वहां भी अपनी गोटी फिट रहे। सूत्रों की मानें तो ये तीनों ही विधायक आजकल मुख्यमंत्री की आंखों के तारे बने हुए हैं। जो काम ये पिछले सत्रह महीने को शासनकाल के दौरान मुख्यमंत्री से कराने की हिम्मत नहीं कर पाए थे ,इन्होने इन दिनों उन्हे करा दिया है या वे कार्य पाईपलाइन में हैं। जो सचिव कभी इनके आते ही कुर्सी छोडक़र दूसरे अधिकारियों के कमरों में जा इनसे पीछा छुड़ाने मे ही भलाई समझते थे वे भी आज इनकी बातों को बड़ी तल्लीनता से सुनने को मजबूर हैं। कुल मिलाकर राजनीति के बदले माहौल में इनकी तूती बोल रही है। लेकिन इसका एक पहलू और भी है दूसरे गुट की आंखों में ये खटकने लगे हैं। इनमे से दो विधायक तो दूसरे गुट से पहले गुट में रोज हाजिरी बजाने को अपनी मजबूरी बता कर सफाई देने पर लगे हैं,लेकिन वहां इनकी बातों पर कम ही भरोसा किया जा रहा हैं। क्योंकि इससे पहले भी कई बार ये अपने ही लोगों से वादाखिलाफी कर चुके हैं। तो ऐसे में भला इन पर अब कौन विश्वास करे। जबकि राजनीतिक हलकों में यह बात भी है कि इनमें से एक विधायक को राज्य आन्दोलनकारी का विधायकी का टिकट काट कर इन्हे दिया गया और दूसरे की मजबूरी यह है कि उसकी विधानसभा ही आगामी विधानसभा चुनावों में नए परिसीमन के बाद गायब होने वाली है ऐसे में यदि डूबता तिनके का सहारा न ले तो क्या करे। जहां तक तिसरे विधायक का सवाल है उस पर मुख्यमंत्री के कई अहसान हैं और वह इतना भी अहसान फरामोश नहीं कि डूबते जहाज के चूहों की तरह बचने का रास्ता खोजे वह जहाज के साथ ही डूबना चाहता है ताकि शहीदों की सूची में शामिल हो सके।
कुल मिलाकर एक गुट के विधायक जो किसी की आंखों के तारे बने हुए है तो वह दूसरे गुटब् क ी आंखों की किरकिरी ऐसे में वे राजनीतिक चालों पर भी नजर रखे हुए हैं, और अपना काम निकालने में दिन रात एक किए हुए हैं। शायद उन्हे यह पता है कि बदले परिदृश्य में उनकी चले या न चले।