Tuesday, September 30, 2008

संजीवनी पर विवाद





चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
ये सामान्य पादप हैं - वनस्पति वैज्ञानिक प्रोफेसर भट्ट
लोकव्यवहार में भी नहीं ऐसी बूटी- मनोहरकान्त ध्यानी 
राजेन्द्र जोशी 
देहरादून : पतंजलि योग पीठ के स्वामी बालकृष्ण तो हनुमान जी से भी तेज निकले जो सीधे द्रोणगिरी पर्वत पर जा पहुंचे और उस संजीवनी को उठा लाये, जिसकी पहचान हनुमान जी तक को नहीं थी। तभी तो हनुमान जी पूरा का पूरा द्रोणागिरी पर्वत उठाकर श्री लंका रख आये और जहां सुषेन वैद्य ने इस पर्वत से ढंूढने के बाद लक्ष्मण की मूच्र्छा ठीक किया था। योग पीठ के स्वामी के इस दावे पर कि वे द्रोणागिरी पर्वत से संजीवनी ले आये हैं, पर अंगुलियां उठनी शुरू हो गयी हैं। कि जब हनुमान जी द्रोणगिरी पर्वत उठाकर श्री लंका रख आए हैं तो बालकृष्ण जी ने संजीवनी आखिर कौन से पर्वत से व कहां से ढंूढ़ी और यदि संजीवनी अभी तक बची है तो हनुमान जी क्या ले गए थे और क्या वह परम्परा भी झूठी है जो यहां के लोग हनुमान की की पूजा इस लिए नहीं करते कि वे इस क्षेत्र से पूरा का पूरा पहाड़ ही श्री लंका रख आए थे। इससे तो यह लगता है कि या तो हनुमान जी यहां से द्रोणागिरी पर्वत नहीं ले गये और या फिर यहां की लोकमान्यता ही गलत है। उल्लेखनीय है कि बीते दिनों पतंजलि योगपीठ के स्वामी बालकृष्ण द्वारा द्रोणागिरी पर्वत पर जाकर तीन दिन के भीतर ही वहां से संजीवनी बूटी लाने का दावा किया गया था। वहां से लौटने के बाद उन्होने बताया था कि संजीवनी बूटी चार औषधि पादपों से मिलकर बनी है जिसमें मृत संजीवनी, विषालया कर्णी,सुवर्ण कर्णी तथा संधानी शामिल हैं। लेकिन आचार्य के इस दावे सेे प्रदेश के पादप विज्ञानी प्रोफेसर राजेन्द्र भट्टï सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि बालकृष्ण जी जिन पौधों की बात कर रहे हैं वनस्पति विज्ञान में वे असमान्य पादप नहीं हैं। वनस्पति शास्त्र में इन्हे सोसोरिया गोसिपी फोरा तथा सिलेनियम कहा जाता है। उन्होने वताया कि बालकृष्ण के हिसाब से वे अदभुत हो सकते हैं अथवा उन्हें उन्होने पहली बार देखा हो लेकिन वनस्पति विज्ञान की सैकड़ों पुस्तकों में इनका उद्हरण मिलता है, और वनस्पति विज्ञानियों को इसकी खूब जानकारी है। उन्हेाने बताया कि मध्य हिमालय के इस क्षेत्र के ऊंचे स्थानों जिन्हे बुग्याल कहा जाता है, में यह पौधे सामान्यतया मिलते हैं। उनका यह भी कहना है कि संजीवनी के बारे में अभी तक यह पता भी नहीं है कि वह केवल एक ही पादप था अथवा कई पाइपों के रस से बनी औषधि। उन्होने कहा बालकृष्ण को इसे संजीवनी बताने से पहले इसका रसायनिक परीक्षण जरूर कराना चाहिए था। उन्होने भी इसे सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का गैर वैज्ञानिक तरीका बताया। वहीं श्री बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के पूर्व अध्यक्ष तथा वर्तमान में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनोहर कांत ध्यानी जिन्हेाने अपने जीवन का अधिकंाश समय जोशीमठ, बदरीनाथ सहित इस मध्य हिमालय में गुजारा है बताते हैं कि यह केवल वाह-वाही लूटने का सस्ता तरीका है। उन्होने कहा कि वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय क्षेत्र को अभी पांच करोड़ साल पूरे हुए हैं जबकि त्रेतायुग में रामचन्द्र जी के समय को बीते अभी लगभग एक करोड़ 40 लाख साल ही हुए हैं। तब से लेकर अब तक प्रकृति में न जाने कितने बदलाव हुए हैं। वहीं उनके अनुसार राम काल के बाद महाभारत काल आया इसी समय से इन तीर्थ यात्राओं की शुरूआत हुई जब धौम्य मुनि पांडवों को इस मार्ग से ले कर गये थे। इस दौरान कहीं भी इस संजीवनी बूटी का जिक्र नहीं मिलता है। उनके अनुसार उत्तराखण्ड क्षेत्र प्राचीन काल से वैद्यों तथा रस शास्त्रियों की भूमि रही है तथा आयुर्वेद में यहां कई प्रयोग तथा अनुसंधान हुए हैं इतना ही नहीं स्थानीय लोगों के लोक व्यवहार में भी इस बूटी का कहीं कोई जिक्र नहीं है। ऐसे में यदि उन्होने वाकई यदि संजीवनी को खोजा है तो प्रशंसनीय है। वहीं इस मामले पर राज्य के आयुर्वेद विज्ञान के जाने माने आयुर्वेद शास्त्री पंण्डित मायाराम उनियाल का कहना है कि लोकपरम्परा अथवा लोकव्यवहार में भी इसका अभी तक कहीं प्रयोग नहीं मिला है लिहाजा अभी इस पर शोध किया जान जरूरी है तभी किसी निर्णय पर पहुंचा जा सकता है।

Wednesday, September 17, 2008

तिब्बती ज्योतिषी शरीर त्यागने पर भी ध्यानमग्न रहा


राजेन्द्र जोशी देहरादून: अपनी मौत के ६ दिन बाद तक एक तिब्बती तपस्वी लामा अपने शव के अन्दर योगध्यान में मग्न रहा। इसीलिये इतने दिनों तक तिब्बती समुदाय के लोगों ने उसका दाह संस्कार नहीं किया। आप चाहे माने या नहीं माने मगर तिब्बतियों के शाक्य सम्प्रदाय के लोगों का तो यहां यही मानना है कि बीते तीन सितम्बर को ध्यान समाधि मुद्रा में प्राण त्यागने वाले तिब्बती लामा लोबसांग थिनले यहां राजपुर स्थित शाक्य अस्पताल में अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी नश्वर देह के अन्दर ध्यान साधना में मग्न रहे। इस दौरान उन्हें उसी ध्यान मुद्रा में रखा गया और फिर छठेे दिन राजपुर स्थित तिब्बती श्मशान में उस देह का महान सन्तों की तरह दाह संस्कार कर दिया गया। शाक्य मठ के प्रवक्ता कुन्गा रिनचेन ने बताया कि सामान्यत: मृतक का शरीर जल्दी ही ठण्डा पड़ अकड़ जाता है और फिर शरीर से बदबू आने लगती है। मगर लामा लोबसांग थिनले की देह इन 6 दिनों तक इस तरह अप्रभावित रही जैसे कि वह योगध्यान मुद्रा में ही हों। रिनचेन ने बताया कि छठे दिन भी थिनले का पार्थिव नरम और गरम रहा। बदबू का तो सवाल ही नहीं था। इस दौरान उनकी गरदन भी सीधी रही। जबकि सामान्य मामलों में मृत शरीर की गरदन एक तरफ लुढ़क जाती है। मठ के प्रवक्ता ने बताया कि तिब्बत के आम्दो प्रान्त के गंवा नामक स्थान में जन्में सोबसांग थिनले १७ साल पहले भारत आये थे। भारत में वह सीधे राजपुर स्थित शाक्य मठ में चले आये जहां उन्होंने दलाई लामा के बाद दूसरे नम्बर के धर्म प्रमुख महापवित्र शाक्य त्रिजिन की शरण में बज्र योगिनी ध्यान तपस्या शुरू कर दी थी। देहरादून में उन्हें शाक्य केन्द्र में आवास दिया गया जहां कुछ सहायकों के अलावा उन्हें कोई नहीं मिलता था। प्रवक्ता ने बताया कि वह न 17 सार्लोंं तक निरन्तर ध्यान मग्न रहे और कभी कभार उसी मुद्रा में टहलते थे या यात्रा पर जाते थे। मृत्यु से तीन दिन पूर्व सोबसांग ने अपने परिचरों को आदेष दे दिये थे कि अब वह देह त्यागने जा रहे हैं और ध्यान मुद्रा में ही प्राण त्यागेंगे इसलिये उनके ध्यान में दखल नहीं डाली जाय। तिब्बत से यहां पंहुंचे सोबसांग थिनले के भतीजे कुंगा थुटौप ने बताया कि उसके चाचा ने कहा था कि मृत्यु के तीन दिन तक किसी को देह उनका शव नहीं दिखाया जाय तथा उसे हाथ नहीं लगाया जाय और उसके बाद भी कम से कम तीन दिन तक पार्थिव देह को उसी ध्यान मुद्रा में रखा जाय। थुटौप ने बताया कि उसका चाचा सात साल की ही उम्र में सन्यासी या लामा बन गया था और बाल ब्रहमचारी था। धर्म ग्रन्थों का प्रकाण्ड विद्वान होने के साथ ही वह एक महान तपस्वी और भविष्यवक्ता भी था, जो कि षक्ल देखते ही आदमी का भूत वर्तमान और भविष्य तक बता देते थे। शाक्य केन्द्र के प्रवक्ता कुंगा रिनचेन ने बताया कि छठे दिन पूरे सन्त सम्मान के साथ सोबसांग की पार्थिव देह राजपुर स्थित तिब्बती ष्षमषान ले जायी गयी जहां विषिष्ट सन्तों की ही तरह अलग तरह की चिता मण्डाल बना कर ध्यानमुद्रा में बैठे हुये ही उनका दाह संस्कार कर दिया गया। जबकि सामान्य तिब्बती को चिता में लिटा कर जलाया जाता है। उन्होंने बताया कि तिब्बतियों के ष्षाक्य सम्प्रदाय की मान्यता है कि जिस स्थान पर आदमी प्राण त्यागता है वहां पर उसकी आत्मा ४५ दिन तक मंडराती रहती है। इसलिये इस अवधि में सोबसांग की वहां पूजा चल रही है। उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में लगभग 30 हजार तिब्बती रहते हैं। जोकि यहां एक दर्जन स्थानों पर रह रहे हैं। तिब्बत से भागने के बाद तिब्बतियों के सर्वोच्च गुरू दलाई लामा भी सबसे पहले देहरादून के मसूरी में ही आये थे जहां वह एक साल रहे और फिर उनका मुख्यालय हिमाचल के धर्मषाला चला गया।

Monday, September 15, 2008

प्रतिनियुक्ति पर अधिकारियों का चरागाह बना राज्य

राजेन्द्र जोशी
उत्तराखण्ड प्रदेश देश के अन्य प्रान्तों से नियत समय सीमा के लिए प्रतिनियुक्ति पर आए अधिकारियों का चरागाह बनता जा रहा है यही कारण है कि यहां एक बार जो अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर आ गया वह अपने मूल प्रदेश को जाने का नाम ही नहीं लेता। यही कारण है कि प्रदेश के वन विभाग तथा इससे जुड़ी अन्य परियोजनाओं में आज भी ऐसे दर्जनों अधिकारी हैं जो यहां मौज काट रहे हैं।
गौरतलब हो कि किसी भी प्रदेश में अधिकारियों की कमी अथवा भारत सरकार के नियमों के अनुसार किसी भी प्रांत के लिए आवंटित काडर के अधिकारियों को अन्य किसी भी प्रान्त में अपनी सेवाएं देने के लिए एक नियत समय के लिए प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाता रहा है। यह अवधि अधिकांशत: तीन साल के लिए ही होती है। लेकिन उत्तराखण्ड राज्य में प्रतिनियुक्ति पर आने वाले अधिकारी जो यहां एक बार आ जाते हैं वे यहां से जाने का नाम ही नहीं लेते हैं। यह सब केन्द्रीय आयोग तथा इन अधिकारियों की मिलीभगत से होता है। ऐसा नहीं कि यहां आने के लिए और किसी प्रदेश के और कोई अधिकारी तैयार नहीं होते हैं। एक जानकारी के अनुसार आज भी कई प्रदेशों को अपनी सेवाएं देने वालों का तांतां आयोग के समक्ष लगा रहता है। लेकिन आयोग में भी जिसकी गोटी होती है वहीं अधिकारी अपने मनचाहे प्रदेश को प्रतिनियुक्ति पा जाता है। जिसकी तय सीमा तीन साल होती हे लेकिन यहां भी अधिकारियों की सेटिंग ही काम आती है कि जिस प्रदेश में वह प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाता है वह प्रदेश उसके वहां सेवाएं देने क ी तय सीमा के बाद भी उस पर आपत्ति नहीं जताता, और अधिकारी उस प्रदेश में मौज काटते हैं। ऐसा ही यहां उत्तराखण्ड में हो रहा है।
भारतीय वन सेवा के दर्जनों ऐसे अधिकारी है जो तीन साल की समय सीमा पार हो जाने के बाद भी अपने मूल राज्य अथवा मूल विभाग को वापस जाने का नाम ही नहीं ले रहे हैं इनमें अतिरिक्त अपर प्रमुख वन संरक्षक, ग्राम वन पंचायत एवं संयुक्त वन प्रबंधक के पद पर बीते पांच साल से तैनात एसएस शर्मा, नोडल अधिकारी भूमि सर्वेक्षण के पद पर बीते छह साल से तैनात आर के महाजन, उपपरियोजना अधिकारी जलागम के पद पर बीते चार साल से ज्यादा समय से तैनात मीनाक्षी जोशी, मुख्यवन्य जन्तु प्रतिपालक के पद पर बीते सात साल से तैनात श्रीकांत चन्दोला, डा0 सुशीला तिवारी मेमोरियल वन चिकित्सालय में सचिव पद पर बीते पांच सालों से तैनात मौलिश मलिक, मुख्य वन संरक्षक के पद पर बीते पांच साल से तैनात प्रकाश भटनागर, परियोजना निदेशक जलागम परियोजना के पद पर बीते सात साल से तैनात डीजेके शर्मा ज्योज्सना सितलिंग जो सात साल से यहां तैनात हैं।

मुख्यमंत्री की आंखों में झोंकी धूल

राजेन्द्र जोशी
देहरादून : प्रदेश के काबिल प्रशासनिक अधिकारियों तथा भाजपा के ही कुछ एक दायित्वधारियों द्वारा मुख्यमंत्री की आंखों में धूल झोंकने का मामला प्रकाश में आया है। चर्चा है कि इस घोटाले में करोड़ों रूपयों की डील बताई जाती है। बीते कई दशकों से कुंभ मेले के दौरान श्रद्धालुओं की संख्या को देखते हुए उनके वाहनों की पार्किंग के लिए ऋषिकेश नगर के बीचोंबीच भरत मंदिर के मैदान से लगे लगभग पांच हेक्टेयर भूमि को पार्किंग से छोड़ने का इन अधिकारियों ने फरमान जारी किया ही था कि विभागीय प्रमुख सचिव ने इस डील पर ब्रेक लगा दिया और मामले की जांच मुख्यमंत्री से करने के आदेश दे डाले। इस मामले में उन्होने टिप्पणी की है कि मुख्यमंत्री को इस मामले में गुमराह किया गया है।
उल्लेखनीय है कि कुंभ मेले के दौरान लक्ष्मण झूला,ऋषिकेश, स्वर्गाश्रम, हरिद्वार आदि क्षेत्रों को प्रशासनिक आधार पर मिलाकर कुंभ क्षेत्र बनाया जाता रहा है। वहीं इस क्षेत्र के विकास के लिए हरिद्वार-ऋषिकेश विकास प्राधिकरण भी बनाया गया है जिसके उपाध्यक्ष तथा कुंभ मेलाअधिकारी एक ही हैं। इस लगभग पांच हैक्टेयर भूमि पर बीते कई दशकों से कुंभ मेले के दौरान आने वाले यात्रियों के वाहनों की पार्किंग तथा अस्थायी पुलिस चौकी व अस्थायी शौचालयों का निर्माण किया जाता रहा है। जिससे ऋषिकेश नगर सहित आसपास के क्षेत्रों पर यातायात का दबाव कम किया जाता है। इसे हीरालाल पार्किंग क्षेत्र भी कहा जाता है, और मास्टर प्लान में इस भूमि को पार्किंग के लिए आरक्षित भी किया गया है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार बीते कुछ दिन पूर्व देहरादून निवासी अतुल गोयल पुत्र मित्रसेन गोयल निवासी 55,गांधी रोड़ ने सचिव शहरी विकास को एक पत्र लिख कर मांग की कि उसकी भूमि खाता संख्या 338 जिसका क्षेत्रफल 4.856 हेक्टेयर है को कुंभ मेला हेतु पार्किंग के लिए पिछले कई सालों से आरक्षित किया गया है,को अवमुक्त करने की प्रक्रिया शुरू की जाय। जबकि सूत्रों ने बताया है कि यह भूमि अतुल गोयल की है ही नहीं यह भूमि वन विभाग की थी जिसे कई दशकों पूर्व कालीकमली ट्रस्ट को लीज पर दी गयी थी जिसक ी लीज अवधि समाप्त होने में अब कुल 17 साल शेष हैं। यह भूमि वर्ष 1935 में वन विभाग ने कालीकमली ट्रस्ट को 90 साल की लीज पर दी थी।
बताया जाता है कि इस बार प्रदेश के इन प्रशासनिक अधिकारियों ने इस भूमि को पार्किग से मुक्त करने के लिए व्यूह रचना की और मास्टर प्लान में पार्किंग के लिए नियत इस भूमि को डी नोटिफाईड करने के आदेश दे डाले। सूत्रों के अनुसार जिलाधिकारी हरिद्वार की आख्या 8832 पी08 एवं 4070 म 08247 दिनांक 23 मई 2008 ने अपने पत्र में कहा कि उक्त भूमि से दो- तीन किलोमीटर दूर वन विभाग तथा राजस्व विभाग की 6 हैक्टेयर भूमि वैकल्पिक व्यवस्था के लिए खाली है। जिसे कुंभ मेला के दौरान पार्किंग के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार जिलाधिकारी तथा सचिव द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित इस पत्र पर प्रमुख सचिव शहरी विकास ने कुछ स्पष्टीकरण मांगे और इसके बाद वे छुट्टी चली गयी। उन्होने वापस छुट्टी से आने के बाद देखा कि उक्त भूमि को सामान्य आधार बनाकर आवास सचिव ने इस भूमि को डी नोटीफाइड किए जाने के लिए मुख्यमंत्री को पत्रावली बनाकर पेश किया जिसे मुख्यमंत्री ने भी सचिव की अनुशंसा के आधार पर बीती 31 अगस्त 2008 को पार्किं ग से हटाने के आदेश दे डाले। सूत्रों के अनुसार इस मामले में एक सचिव तथा प्रमुख्य सचिव आवास में काफी नोंक झोंक भी हुई। जिसके बाद आवास सचिव फिर एक बार छुट्टी लेकर चली गयी है। यहां सूत्रों ने यह भी जानकारी दी है कि इस मामले में मुख्यमंत्री द्वारा नामित एक दायित्वधारी व्यक्ति भी शामिल है। जो शासन प्रशासन पर अपने मुख्यमंत्री के करीबी होने की बात कह कर इस मामले की फाईल को पंख लगा कर उड़ा रहा है। इस प्रकरण को लेकर आजकल सत्ता के गलियारों में चर्चाओं का बाजार गर्म है कि इस प्रकरण में जिलाधिकारी हरिद्वार से लेकर सचिव तथा भाजपा के कुछ नेताओं ने मोटी रकम वसूली है। अब इस मामले में मुख्यमंत्री के बेंगलुरू से लौटने की प्रतीक्षा की जा रही है।
वहीं इस मामले में प्रमुख सचिव शहरी विकास ने 2 सितम्बर को मुख्यमंत्री को दी गयी अपनी टिप्पणी में साफ-साफ कह दिया है कि प्रश्गत भूमि के स्थान पर जिस दूसरी भूमि की बात की जा रही है वह भौतिक रूप में शासन को उपलब्ध नहीं है। वहीं उन्होने कहा है कि वन विभाग की भूमि हेतु सुप्रीमकोर्ट की कमेटी की क्लीयरेंस चाहिए होती है। उन्होने कहा कि ऐसी स्थिति में प्रश्नगत भूमि डि नोटिफाईड करके वैकल्पिक व्यवस्था हेतु उपलब्ध न होने पर कुंभ 2010 में कितनी कठिनाई होगी अनुमान लगाना मुश्किल है भाजपा राज्य में।
मामले में कांग्रेस के आला नेताओं का कहना हैे कि सरकार आए दिन घोटालों में फंसती जा रही है। मुख्यमंत्री को गुमराह कर सचिव अपनी इच्छानुसार डीलों में लगे हैं। यही कारण है कि हम हमेशा प्रशासन के अनियंत्रित होने की बात कह रहे हैं। उन्होने कहा कि यह तो एक उदाहरण मात्र है और भी कई डील यहां तैनात सचिव कर रहे हैं।

Saturday, September 6, 2008

भारत सरकार तक के आदेश भी नहीं मानते भ्रष्ट अधिकारी

राजेन्द्र जोशी देहरादून : उत्तराखण्ड में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों को भारत सरकार के आदेश कोई मायने नहीं रखते। ताजा मामला वेस्ट बंगाल प्रदेश से जुड़ा है जहां का एक आईएस अधिकारी वहां जाने को तैयार ही नहीं है जबकि इस मामले में वेस्ट बंगाल सरकार तथा केन्द्र ीय निदेशालय उत्तराखण्ड सरकार को यह साफ कह चुका है कि जितनी जल्दी हो उनके अधिकारी को तुरंत कार्यमुक्त करते हुए उनके मूल कैडर राज्य को वापस भेजा जाय। लेकिन अधिकारी है कि वह जाने का नाम ही नहीं ले रहा है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि इस प्रशासनिक अधिकारी को जब यहां मलाई खाने को मिल रही है तो वह बंगाल मठ्ठा पीने को भला क्यों जाय। बात भी सही है 90 बैच के इस अधिकारी ने यहां पर प्रतिनियुक्ति के दौरान जितना माल काटा है उसे ठिकाने लगाने को भी तो समय चहिए, केन्द्र व बेस्ट बंगाल सरकार है जो उसे समय ही नहीं देना चाहते। बात इस अधिकारी के एमडीडीए में उपाध्यक्ष के कार्य से ही शुरू की जाए। आप लोगों ने देहरादून नगर क ी सडक़ों के बीच में डिवायडरों पर जो गमलों में पेड़ देखे होगें वे इन्ही अधिकारी के शासनकाल में खरीदे गए हैं। चर्चा तो यहां तक हक कि 100 -200 रूपयों में आमतौर पर निजी नर्सरियों में बिकने वाले ये पेड़ पौधे 1500 रूपए प्रति क ी दर पर खरीदे गए। इनमें कितना गोलमान हुआ है यह तो जांच का विषय हो सकता है लेकिन कितने नीचे गिर कर एक प्रशासनिक अधिकारी पैसा कमाना चाहता है यह इसका एक उदाहरण मात्र है। इतना ही नहीं इस अधिकारी पर दून विहार आवासीय कालोनी में एक मकान को हथियाने का आरोप भी है। जिसे इसने अपने किसी रिश्तेदार के नाम औने-पौने दामों में खरीदा है। जहां तक इनके दूसरे कार्यकाल वन सचिव के दौरान की बात की जाए तो आप लोगों को राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के विवादों में आने की बात जरूर आ गई होगी। कैसे सदस्य सचिव सीबीएस नेगी को हटाया गया। और कैसे पर्यावरण अधिकारी टीबी सिंह को सदस्य सचिव के साथ ही शक्तिशाली बनाया गया यह तो पुरानी बात है लेकिन उस अधिकारी को हटाने में एक सरकार को किस तरह नाकों चने चबाने पड़े यह किस्सा सत्ता के गलियारों में खासा चर्चा का विषय रहा है। इतना ही नहीं आजकल राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में सदस्य सचिव के लिए चयन प्रक्रिया जोरों पर है इसी अधिकारी ने एक बार फिर यहां आवेदन किया हुआ है क्योंकि उसे पता है कि उसके मदद करने वाले यहां बहुत है जिन्हे उसने सत्ता में रहते हुए रेवडिय़ा खिलाई हैं। जबकि ईधर इस चयन प्रक्रिया को लेकर भाजपा कार्यसमिति के सदस्य तथा पूर्व विधायक राजेन्द्र सिंह ने मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर इस प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान लगा दिया है कि इस पर के लिए योग्यता तथा आयु में हेराफेरी की गयी है। उन्होने मुख्यमंत्री को दिए पत्र मे ंकहा है कि इसमें जल अधिनियम 1974 की धारा 4 (2) एफ ,तथा उच्चतम न्यायालय की मौनेटरिंग कमेटी के निर्देश 16 अगस्त 2005 तथा उत्तराखण्ड शासन की नियमावली 16 अगस्त2002 का उलंघन किया गया है। बहरहाल अब यह अधिकारी अपने मूल कैडर राज्य को नहीं जाना चाहता और आजकल अपने को यहां पर ही तैनात रखने के लिए मुख्यमंत्री सचिवालय में तैनात कर्मचारियों तथा अधिकारियों की गणेश परिक्रमा कर रहा है।

Thursday, September 4, 2008

56 घोटाले और जांच आयोग का सच

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी राजेन्द्र जोशी देहरादून: कांग्रेस शासन में हुए 56 घोटालों के लिए बनाए गए जस्टिस एएन वर्मा ने इस्तीफा तो दे दिया लेकिन वे इस इस्तीफे के पीछे कई ऐसे सवाल छोड़ गए है जिनका जवाब अब सरकार को देना होगा है कि आखिर ऐसे कौन से कारण थे जो वर्मा को यह पद छोडऩा पड़ा। भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस से सत्ता हथियाने में उनके शासन काल के दौरान 56 घोटालों की बात उठायी थी और जनता से चीख-चीख कर यह कहा था कि सत्ता में काबिज होते ही वह इन 56 घोटालों के प्रकरण पर दूध का दूध और पानी का पानी कर घोटालों मे लिप्त लोगों को जेल के भीतर पहुंचा कर ही दम लेंगे। विधान सभा चुनाव भी हुए सरकार भी भाजपा की बनी लेकिन सरकार ने जिस जस्टिस एएन वर्मा को इन 56 घोटालों की जांच की कमान सौंपी वे साल भर बाद ही स्वास्थ खराब होने की बात कहकर इस आयोग से अपना पिंड छुड़ाकर चल निकले। कहा जाता है हमाम में सब नंगे हैं। यह कहावत जस्टिस वर्मा के सामने तो सच ही निकली। जब घोटालों में सब के सब ही लिप्त हों तो बेचारा जांच आयोग तो खुद ही अपाहिज होगा, और हुआ भी यही। सूत्रों के अनुसार जस्टिस वर्मा ने जब इन घोटालों की जांच के लिए तमाम विभागों से पत्राचार शुरू किया तो उन्हे यह आभास तक नहीं था राज्य की नौकरशाही इतनी बेलगाम हो चुकी है कि उसके सामने जब मुख्यमंत्री के आदेश ही कोई मायने नहीं रखते तो बिना नाखून तथा दांत वाले आयोग की उनके सामने क्या बिसात। हुआ भी यही सैकड़ों बार पत्राचार करने के बाद भी विभागीय अधिकारियों से लेकर सचिवों तक ने उनके पत्रों का जवाब देना गवारा नहीं समझा, तो ऐसे में वे यहां अकेले बैठकर करते तो क्या करते। इतना ही तीन दशक से ज्यादा न्यायिक सेवा में रहकर नाम कमाने वाले जस्टिस वर्मा ने जब इन विभागीय अधिकारियों तथा सचिवों को इन घोटालों से सम्बधित जानकारियों के लिए पत्रों के बाद इनक े उत्तर पाने के स्मरण पत्र तक भेजे तो उनका भी वही हश्र हुआ तो पूर्व में भेजे गए पत्रों का हुआ शायद वे भी रद्दी की टोकरी की भेंट चढ़ गए। ऐसे में एक जांच अधिकारी वह भी न्यायिक सेवा का कैसे इस आयोग का अध्यक्ष रहता सो उसने कोई न कोई बहाना तो बनाना ही था तो उन्हेाने स्वास्थ्य का बहाना बनाकर यहां से अपना पिंड छुड़ा दिया। जस्टिस वर्मा तो गए लेकिन अब जो नए साहब आएंगें जैसा कि मुख्यमंत्री कहते है कि नए अध्यक्ष बनाए जाएंगे ऐसे में जब उनके साथ भी ऐसा होगा तो इस बात की क्या गारंटी है कि वे भी यहां टिक कर इस मामले की जांच को अंजाम तक पहुंचा पाएंगे। जिन घोटालों की बैसाखियों के सहारे भाजपा सत्ता तक पहुंची। ऐसे में अब एक बात औ उठ रही है कि सरकार इसी आयोग में नए अध्यक्ष का चुनाव कर इस आयोग का कार्यकाल बढ़ाएगी। और वहीं यह बात भी सत्ता के गलियारों में तैर रही है कि हो सकता है सरकार अब कोई नया आयोग ही बना डाले। लेकिन जिन परिस्थितियों में जस्टिस वर्मा ने इस्तीफा दिया उससे तो यह साफ ही लगता है कि जिन 56 घोटालों की बात भाजपा ने की थी वह सही थी और उसमें वे सभी अधिकारी तथा सचिव तक लिप्त थे जिन्होने जस्टिस वर्मा का जांच में असहयोग किया था। कहा जाता है राजनीति में कोई स्थाई मित्र अथवा स्थाई दुश्मन नही होता । इन 56 घोटालों में से एक तिवारी सरकार का आबकारी घोटाला। तत्कालीन आबकारी मंत्री जब कांगेस में थे तो भाजपाईयों को वे सबसे ज्यादा भ्रष्टï तथा चर्चित आबकारी घोटाले का सूत्रधार लगते थे लेकिन राजनीतिक मजबूरीवश जब उन्हेाने भाजपा का दामन सभांलना पड़ा तो वे ही भाजपाईयों की नजर में सबसे ज्यादा ईमानदार बन गए। तो ऐसे में जांच आयोग के अध्यक्ष के सामने तो परेशानी होनी ही थी। जिनके खिलाफ वे सबूत ढूंढ रहे थे अब उन्हे ही बचाने की जिम्मा उनके कंधों पर आ गया ऐसे में इस्तीफा नहीं देते तो क्या करते?