Wednesday, September 17, 2008

तिब्बती ज्योतिषी शरीर त्यागने पर भी ध्यानमग्न रहा


राजेन्द्र जोशी देहरादून: अपनी मौत के ६ दिन बाद तक एक तिब्बती तपस्वी लामा अपने शव के अन्दर योगध्यान में मग्न रहा। इसीलिये इतने दिनों तक तिब्बती समुदाय के लोगों ने उसका दाह संस्कार नहीं किया। आप चाहे माने या नहीं माने मगर तिब्बतियों के शाक्य सम्प्रदाय के लोगों का तो यहां यही मानना है कि बीते तीन सितम्बर को ध्यान समाधि मुद्रा में प्राण त्यागने वाले तिब्बती लामा लोबसांग थिनले यहां राजपुर स्थित शाक्य अस्पताल में अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी नश्वर देह के अन्दर ध्यान साधना में मग्न रहे। इस दौरान उन्हें उसी ध्यान मुद्रा में रखा गया और फिर छठेे दिन राजपुर स्थित तिब्बती श्मशान में उस देह का महान सन्तों की तरह दाह संस्कार कर दिया गया। शाक्य मठ के प्रवक्ता कुन्गा रिनचेन ने बताया कि सामान्यत: मृतक का शरीर जल्दी ही ठण्डा पड़ अकड़ जाता है और फिर शरीर से बदबू आने लगती है। मगर लामा लोबसांग थिनले की देह इन 6 दिनों तक इस तरह अप्रभावित रही जैसे कि वह योगध्यान मुद्रा में ही हों। रिनचेन ने बताया कि छठे दिन भी थिनले का पार्थिव नरम और गरम रहा। बदबू का तो सवाल ही नहीं था। इस दौरान उनकी गरदन भी सीधी रही। जबकि सामान्य मामलों में मृत शरीर की गरदन एक तरफ लुढ़क जाती है। मठ के प्रवक्ता ने बताया कि तिब्बत के आम्दो प्रान्त के गंवा नामक स्थान में जन्में सोबसांग थिनले १७ साल पहले भारत आये थे। भारत में वह सीधे राजपुर स्थित शाक्य मठ में चले आये जहां उन्होंने दलाई लामा के बाद दूसरे नम्बर के धर्म प्रमुख महापवित्र शाक्य त्रिजिन की शरण में बज्र योगिनी ध्यान तपस्या शुरू कर दी थी। देहरादून में उन्हें शाक्य केन्द्र में आवास दिया गया जहां कुछ सहायकों के अलावा उन्हें कोई नहीं मिलता था। प्रवक्ता ने बताया कि वह न 17 सार्लोंं तक निरन्तर ध्यान मग्न रहे और कभी कभार उसी मुद्रा में टहलते थे या यात्रा पर जाते थे। मृत्यु से तीन दिन पूर्व सोबसांग ने अपने परिचरों को आदेष दे दिये थे कि अब वह देह त्यागने जा रहे हैं और ध्यान मुद्रा में ही प्राण त्यागेंगे इसलिये उनके ध्यान में दखल नहीं डाली जाय। तिब्बत से यहां पंहुंचे सोबसांग थिनले के भतीजे कुंगा थुटौप ने बताया कि उसके चाचा ने कहा था कि मृत्यु के तीन दिन तक किसी को देह उनका शव नहीं दिखाया जाय तथा उसे हाथ नहीं लगाया जाय और उसके बाद भी कम से कम तीन दिन तक पार्थिव देह को उसी ध्यान मुद्रा में रखा जाय। थुटौप ने बताया कि उसका चाचा सात साल की ही उम्र में सन्यासी या लामा बन गया था और बाल ब्रहमचारी था। धर्म ग्रन्थों का प्रकाण्ड विद्वान होने के साथ ही वह एक महान तपस्वी और भविष्यवक्ता भी था, जो कि षक्ल देखते ही आदमी का भूत वर्तमान और भविष्य तक बता देते थे। शाक्य केन्द्र के प्रवक्ता कुंगा रिनचेन ने बताया कि छठे दिन पूरे सन्त सम्मान के साथ सोबसांग की पार्थिव देह राजपुर स्थित तिब्बती ष्षमषान ले जायी गयी जहां विषिष्ट सन्तों की ही तरह अलग तरह की चिता मण्डाल बना कर ध्यानमुद्रा में बैठे हुये ही उनका दाह संस्कार कर दिया गया। जबकि सामान्य तिब्बती को चिता में लिटा कर जलाया जाता है। उन्होंने बताया कि तिब्बतियों के ष्षाक्य सम्प्रदाय की मान्यता है कि जिस स्थान पर आदमी प्राण त्यागता है वहां पर उसकी आत्मा ४५ दिन तक मंडराती रहती है। इसलिये इस अवधि में सोबसांग की वहां पूजा चल रही है। उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में लगभग 30 हजार तिब्बती रहते हैं। जोकि यहां एक दर्जन स्थानों पर रह रहे हैं। तिब्बत से भागने के बाद तिब्बतियों के सर्वोच्च गुरू दलाई लामा भी सबसे पहले देहरादून के मसूरी में ही आये थे जहां वह एक साल रहे और फिर उनका मुख्यालय हिमाचल के धर्मषाला चला गया।

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