राजेन्द्र जोशी
देहरादून : दूसरी व तीसरी सदी में पत्थरों के बड़े-बड़े शिलापटों से बनने वाली हाथ की चक्कियों से गेहूं व अन्य खाद्यान्न पीसने की तकनीक में विकास के बाद ग्रामीणों द्वारा उन्नत जल शक्ति के प्रयोग की तकनीक से जन्में घराट (पनचक्की) वर्तमान समय में विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुके हैं। ग्रामीणों के लिए खर्चीली तथा आधुनिक तकनीक के उपयोग व सरकार की उपेक्षा से आज घराटों का अस्तित्व ही समाप्ति के कगार पर जा पहुंचा है। जबकि दूसरी ओर सरकार का उपक्रम अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण (उरेडा) राज्य के घराटों में सुधारीकरण योजना के दावे तो कर रहा है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। परिणाम अब यहां तक आ पहुंचा है कि न तो वे प्राचीन घराट ही बचे है और न आधुनिक घराट। इसकी बानगी जनपद पौड़ी में देखी जा सकती है जहां योजना के करीब पांच वर्ष बीतने के बाद महज सात घराटों को ही उच्चीकृत किया जा सका है।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड राज्य में स्वयं सेवी संगठन हैस्को द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार राज्य के अस्तित्व में आने के समय तक लगभग 70 हजार घराट थे। जबकि सरकारी उपेक्षा के चलते वर्तमान में मात्र 30 हजार घराट ही शेष हैं। जबकि अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण (उरेडा) राज्य में मात्र 15 हजार घराट ही बताता है। एक जानकारी के अनुसार वर्तमान में देश के हिमालयी राज्यों में घराटों की संख्या ढाई लाख के आस-पास बताई जाती है। जबकि अकेले उत्तराखंड में इनकी संख्या 30 हजार के लगभग बतायी जाती है। वर्तमान में इनकी स्थिति काफी दयनीय है। उरेडा द्वारा हाल में ही कराए गए सर्वेक्षण की मानें तो घराटों की दक्षता व क्षमता धीरे-धीरे कम हो रही है। इसका कारण इनकी घटती उपयोगिता है। वर्ष 2002 में उरेडा द्वारा घराटों का अस्तित्व बचाने के लिए घराट सुधारीकरण कार्यक्रम चलाया गया था। इसके तहत घराटों को चिन्हित कर आधुनिक उपकरणों से लैस करके इन्हें उपयोग में लाना है। योजना लागू होने के पांच वर्ष बाद भी पौड़ी जिले में मात्र सात घराटों को उपकरण से लैस कर उपयोग में लाया जा रहा है। जनपद के कुल पंद्रह ब्विकास खण्डों में वर्तमान में 672 घराट बंद तथा 295 घराट चालू हालत में हैं। घराट सुधारीकरण योजना के तहत लाभार्थी को विद्युत उत्पादन के लिए एक लाख व उपयोग में लाने के लिए 30 हजार तक का अनुदान दिए जाने की व्यवस्था है। बावजूद इसके घराटों का अस्तित्व समाप्ति के कगार पर है। जनपद के एक मात्र ब्विकासखण्ड थैलीसैंण में ही सात घराट उपयोग में लाए जा रहे हंै। विभाग की शिथिलिता व घराटों के उपयोग के घटते चलन से आज भी अधिकांश लोग घराट से भी अनभिज्ञ हैं। विभाग का पौड़ी विकासखंड के अंतर्गत खंडा में मांडल घराट स्थापित करने का सपना भी साकार नहीं हो पा रहा है। इसमें तकनीकी खामियां उजागर हुई है। घराटों की घटती संख्या के बाबत विभाग के पास कोई सटीक जवाव नहीं है। विभाग का कहना है कि इस दिशा में प्रयास चल रहे हैं।
जबकि दूसरी ओर पद्यम् श्री डा0 अनिल जोशी के अनुसार राज्य में सबसे ज्यादा चमोली,उत्तरकाशी, टिहरी, पिथौरागढ़, चम्पावत तथा बागेश्वर में घराट थे। उन्हेाने बताया कि प्रदेश के गांवों के लिए घराट सबसे ज्यादा विकेन्द्री उद्योग बन सकता है जिसमें गांवों के संसाधनों का सबसे ज्यादा उपयोग भी किया जा सकता है,लेकिन सरकार की इस संबध में कोई स्पष्टï नीति न होने के कारण आज इनकी संख्या दिन ब दिन घटती जा रही है। उनके अनुसार यह बात भी सोचने की है कि आखिर दूसरे तथा तीसरे सदी के ये घराट आज तक कैसे जिन्दे रहे और इनका ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में क्या योगदान रहा। उनके अनुसार उरेडा को यदि स्थिति में सुधार लाना है तो सबसे पहले उसे इसकी तकनीक सस्ती तथा सुलभ बनानी होगी तभी इनका कायाकल्प हो सकता है।
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