राजेन्द्र जोशी
जीडी अग्रवाल के आमरण अनशन का यूं अचानक टूट जाना कई तरह के सवाल पैदा करता है. ऐसा नहीं है कि गंगा पर आया संकट टल गया हो लेकिन श्री अग्रवाल
का अनशन जरूर खत्म हो गया है. पहले वे दिल्ली गये. उनसे कहा गया कि उत्तराखण्ड सरकार फिलहाल अपनी परियोजनाओं पर काम रोक रही है. यह मात्र आश्वासन था. फिर दिल्ली पहुंचने के साथ ही उनका अचानक 30 जून को आमरण अनशन समाप्त कर देने की घोषणा कर देना कई तरह के सवाल पैदा करता है. क्या उत्तराखण्ड के लोग विकास में मोहरे हैं तो विकास के विरोध में भी मोहरे ही रहेंगे. उनकी अपनी कोई निर्णायक सोच-समझ का आदर नहीं होगा. उत्तराखण्ड में निर्माणधीन सभी जल विद्युत परियोजनाओं पर काम से ज्यादा ऐसी राजनीति हो रही है जिसमें नेताओं के अलावा तथाकथित पर्यावरणवादी भी शामिल हैं. इसे अब यहां के लोग भी समझने लगे हैं कि इन सभी जल विद्युत परियोजनाओं पर जनता के हित का कार्य कम और राजनीति अधिक हो रही है। इसमें राजनेता ही नहीं तथाकथित पर्यावरणविद भी शामिल हैं। तब आन्दोलन करने वाले ये लोग कहाँ सो जाते हैं जब परियोजना की डीपीआर बन रही होती है अथवा इसके लिए स्थान के चयन की प्रक्रिया चल रही होती है। यह तभी सक्रिय होते हैं जब काम या तो आधा या पूरा हो चुका होता है, आम आदमी की मानें तो वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि तब तक ये ठेकेदारों और निर्माण कंपनी से रकम ऐंठ चुके होते हैं। फिऱ इनको अपने जनता के प्रति दायित्व का बोध होता है और ये आमरण अनशन या ऐसा ही कोई ढोंग शुरू कर देते हैं। तब ऐसे ढोंग-ढकोसले के आंदोलन अन्तराष्ट्र्रीय या राष्ट्रीय पुरस्कार पाने का एक अच्छा प्लेटफोर्म बन जाता है।
आप ऐसे कितने पर्यावरणविदों का नाम ले सकते हैं जिनके कार्यों से जनता का सचमुच भला हुआ हो. आम जनता जो इनके पीछे खड़ी होकर इनको प्रसिद्धि दिलाती हैं बेचारी जनता वहीं की वहीं रहती है। राजनेताओं के चरित्र के बारे में कुछ कहना व्यर्थ है आम जनता सब कुछ जानती है पर मजबूर है कि निजी स्वार्थ वश इनको फिऱ भी झेल रही है, दूसरा कोई विकल्प जो नहीं है। टिहरी बाँध इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जो खरबों रुपया खर्च होने, लाखों लोगों के विस्थापित होने और कई आन्दोलनों को झेलने के बावजूद आज तक अपनी पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं कर पाया है। निर्माण कार्य लटकने से परियोजना की लागत बढ़ तो रही है जिससे जनता के अलावा किसी का नुकसान नहीं होता. आप ने डॉ गुरूदास अग्रवाल जी के अनशन का परिणाम तो देख ही लिया कि किस प्रकार जो जनता उनके समर्थन में साथ बैठी थी वह पाला बदल कर उनके विरोध में ऐसे खड़ी हो गयी कि डॉ. साहब को उत्तरकाशी में अपना बोरिया बिस्तर तथा अनशन छोडक़र भागना पड़ा। यह सब ठेकेदारों और निर्माण कंपनियों के धन बल का ही परिणाम था या सचमुच जनता का विरोध इसका उत्तर तो शायद वहां पर मौजूद लोग ही दे सकते हैं।
ऐसा लगता है पर्यावरण पहाड़ की राजनीति में नयी धुरी बन रहा है. इसमें पैसा, पुरस्कार और प्रसिद्धि तीनों है. पहाड़ बांधों के संकट से तो जूझ ही रहा है, ऐसे पर्यावरणवादियों की बाढ़ से पहाड़ कैसे बचेगा यह सोचनेवाली बात होगी. वहीं दूसरी ओर हमारे सामने पर्यावरणविद् सुंदर लाल बहुगुणा का उदाहरण है. वे आज भी टिहरी बांध के जलाशय के पास बार-बार आते रहते हैं। उन्हें आज भी उस आनंद की अनुभूति है जो खत्म हो चुके टिहरी कस्बे में भागीरथी घाट पर नहाने से मिलती थी। उत्तराखंड के इस ऐतिहासिक कस्बे के नष्ट हो जाने के बाद भी बहुगुणा इससे बहुत दूर जाना नहीं चाहते हैं। उन्हें टिहरी अक्सर अपनी याद दिलाता रहता है। बांध बन चुका है, वे जानते हैं कि अब वे घड़ी की सूई पीछे नहीं मोड़ सकते लेकिन वे अपनी माटी से दूर जाएं भी तो कहां? पर्यावरण के नाम पर विरोधों का राष्ट्रीयकरण करनेवाले पर्यावरणविद हर जगह एक चतुर राजनीतिज्ञ की तरह उपस्थित होने लगे हैं. विरोधों की यह सार्वभौमिकता स्थानीय आवाजों को उठाने की बजाय उनका उपयोग अपने नाम-काम और धाम बनाने के लिए करती है. उत्तरकाशी में जो कुछ हुआ वह इसी का उदाहरण है.
उत्तराखंड में टिहरी ही एक अकेला मामला हो ऐसा नहीं है। धौलीगंगा में दो साल पहले एनएचपीसी की 280 मेगावाट क्षमता वाली परियोजना के लिए ऐलागढ़ गांव को डूबना पड़ा और 24 परिवार विस्थापित हुए। ऐलागढ़ से 50 किलोमीटर दूर केन्द्र सरकार 6000 मेगावाट की पंचेश्वर जलविद्युत परियोजना का निर्माण करने की योजना बना रही है। भारत-नेपाल सीमा पर काली नदी पर बनने वाली यह परियोजना टिहरी के मुकाबले तीन गुनी है। पंचेश्वर के करीब रहने वाले लोग परियोजना का विरोध कर रहे हैं। पंचेश्वर बांध के बनने से करीब 80,000 लोगों के विस्थापित होने की आशंका है। इस बांधों का निर्माण समय की मांग है लेकिन यह भी विडंबना ही कही जाएगी कि उत्तराखंड के लोगों को विकास की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। जलविद्युत परियोजनओं को लेकरआंदोलन तो कोई और करता है और श्रेय किसी और को मिलता है। प्रो0 अग्रवाल को लाहोरी नागा प्रोजेक्ट से गंगा को मुक्त करने की तो फिक्र है, लेकिन कानपुर, इलाहाबाद में जो फैक्टरी का कूड़ा और सीवर इस नदी में पड़ रहा है, उसकी चिन्ता उन्हें क्यों नहीं होती?
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम श्री अग्रवाल पर निजी तौर पर कुछ आक्षेप लगा रहे हैं. आम उत्तराखण्डी मानता है कि बड़े बांध हमारे लिए ठीक नहीं है. जहां तक विकास के लिये कस्बों की कुर्बानी की बात है तो यह विकास तो कुर्बानी मांगता ही है। लेकिन उत्तराखण्ड, जिसकी भूगर्भीय संरचना काफी कमजोर है, वहां पर इतने बड़े बांध विकास नहीं कर सकते, वह केवल विनास ही कर सकते हैं। इसका उदाहरण आप लोग प्रतापनगर और चिन्यालीसौंड़ में देख सकते हैं, जहां पर बांध से कहीं ऊपर की बस्तियों के मकानों में 4-4 इंच की दरारें आ गईं हैं और सरकारी मानकों के आधार पर उनका विस्थापन भी नहीं किया जा सकता। सरकार को चाहिये कि अपनी नदियों को केन्द्र के पास गिरवी रखने की बजाय छोटे-छोटे पावर प्रोजेक्ट बनाये और इससे पहले अपने प्रदेश को पारेषित करे। टिहरी बांध से नुकसान उत्तराखण्ड में हुआ, लोगों के पैतृक आवास भी झील में समा गये और हमें मिली मात्र 12 फीसदी बिजली. यदि प्रदेश सरकार यहां पर छोटी-छोटी योजनायें बनाती तो निश्चित ही हमें बिजली मिलती। दुर्भाग्यपूर्ण और वास्तविक बात यह है कि हमारे प्रदेश में इतनी योजनायें काम कर रहीं हैं और दूसरे कई राज्यों को इन योजनाओं से बिजली दी जा रही है लेकिन उत्तराखण्ड को आज भी दूसरे प्रदेशों से बिजली खरीदनी पड़ रही है।
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