रूपकुण्ड के रहस्य को भेदने के दावे तो बहुत होते हैं लेकिन आज भी रूपकुण्ड के नरकंकाल रहस्य ही बने हुए हैं. लेकिन दुर्भाग्य से अब ये कंकाल कम हो रहे हैं.
रूपकुण्ड में मिलने वाले मानव कंकाल पर्वतारोहियों तथा मनुष्य के अत्यधिक आवागमन के कारण खतरे में हैं। यहां पाए जाने वाले विलक्षण तथा रहस्यमय मानव कंकाल धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। सरकार इस ऐतिहासिक तथा रहस्यों से भरी धरोहर को संजोए रख पाने में असफल ही साबित हुई है। यही कारण है कि नौवीं सदी के ये अस्थि अवशेष समाप्त होने के कगार पर हैं। इस बात की प्रबल संभावना है कि रूपकुण्ड के अस्थि अवशेषों की तस्करी हो रही है और दुनियाभर से आनेवाले ट्रैकर इन अस्थियों को यहां से बाहर ले जा रहे हैं.
उत्तराखण्ड का हिमालयी क्षेत्र अपने आप में कई रहस्यों तथा चमत्कारों से भरा पड़ा है। इन्हीं में से एक रहस्यमयी झील जिसे `रूपकुण्ड´ कहा जाता है इसी हिमालय की पर्वत श्रृंखला त्रिशूल तथा नन्दाघाटी के नीचे स्थित है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई लगभग 16499 फीट है। यह स्थान चमोली जनपद के देवाल क्षेत्र में आता है। यह वही पवित्र स्थान है जहां हर बारह साल में नन्दा देवी राजजात की यात्रा का यह अंतिम पड़ाव है यहां के बाद यह कहा जाता है कि सीधे स्वर्ग का मार्ग जाता है। एक कहावत यह भी है कि यहां से ही भगवान शिव पार्वती को कैलाश की ओर ले गए थे। जब रास्ते में पार्वती को प्यास लगी तो भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से इस पर्वत पर एक झील बना डाली थी जिसका पानी पीकर पार्वती ने अपनी प्यास तो बुझाई थी वही इस झील में अपने प्रतिविंब को देखकर पार्वती ने इसे ही रूपकुण्ड का नाम दिया था।
इसी झील में तथा इसके आसपास सैकडों मानवों के अस्थिकंकाल बिखरे पड़े थे, जिनका लंदन तथा हैदराबाद के वैज्ञानिकों ने रेडियोकार्बन टेस्ट कर उम्र पता लगाने की कोशिश की तो पता चला कि ये सभी नौंवीं सदी के लोगों के अस्थि कंकाल थे। इतिहासकारों के अनुसार कन्नौज के राजा यशोधवन भगवान शंकर को प्रसन्न करने इसी हिमालय क्षेत्र की ओर अपनी फौज के साथ आये थे. साथ में उनकी गर्भवती पत्नी तथा दासिंयां भी आयीं थीं. यहां से पहले बलुआ कुनड़ के पास रानी को प्रसव हो गया और राजा अपनी सेना को लेकर आगे रूपकुण्ड की ओर बढ़ते चले गए लेकिन वे प्रसव के कारण अपवित्र हो चुके थे लिहाजा प्रकृति के नाराज होने के फलस्वरूप उनके ठिकाने के पास भारी ओले गिरने के साथ ही बर्फीले तूफान चलने लगे जिससे कन्नोज के राजा सहित उसकी फौज तथा रानी तथा दासिंया वहीं दफन होकर रह गए।
आज यहां जो अस्थिकंकाल मिलते हे वे आज के मानवों से काफी बड़े हैं जिनकी लम्बाई लगभग दस से बारह फीट है। वहीं यह कहा जाता है कि इतनी संख्या में या तो ये लोग किसी संक्रामक बीमारी से मरे होंगे या फिर ठंड के कारण। इतना ही नहीं कहा तो यह तक जाता है कि ये लोग तिब्बती व्यापारी रहे होगें जो अपना रास्ता भटक गए थे। क्योंकि इसी जिले के हिमालयी क्षेत्र में सन् 1962 से पूर्व तक भारत व चीन के मध्य व्यापार हुआ करता था। वहीं वैज्ञानिकों का मानना है कि इनकी मृत्यु भारी ओलों (क्रिकेट की बाल के जितने) के गिरने से ही हुई होगी। उनका यह भी मानना है कि भारी ठंड तथा बर्फ के कारण ही इनके शरीर प्रीजर्ब रह पाए। वैज्ञानिकों का मानना है कि पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण यहां यदा-कदा भू-स्खलन होता रहता है इसी कारण ये मानव शरीर धीरे-धीरे रूपकुण्ड में आ पहुंचे होंगे।
स्थानीय बुजुर्गों ने मुझे कई साल पहले बताया था कि इन नरकंकालों के शरीर पर उस दौरान तक उनके पहने कपड़े जैसे कि कश्मीरी लवादा जैसा लोग सर्दी बचाने को पहना करते थे इनके शरीर पर थे लेकिन वे इतना गल चुके थे कि हाथ लगाते ही मात्र राख सी ही हाथ में आती और इनकी हड्डियों से मांस धीरे-धीरे गल चुका था। ऐसा बतानेवालों में मेरे एक रिश्तेदार भी थे जो वहां फारेस्ट आफिसर के तौर पर काम कर चुके थे।
सरकार ने आज से कई साल पहले लोहा जंग नामक स्थान पर एक चेक पोस्ट स्थापित किया थी लेकिन इस ओर जाने तथा यहां से निकलने के कई और रास्ते हैं जिसपर अबाध रूप से आवाजाही होती है. जिलाधिकारी चमोली डीएस गर्ब्याल के अनुसार रूपकुण्ड मार्ग तथा जिले के अंतिम गांव वाण के लोगों ने एक समिति का गठन किया हुआ है जो इस तरह की तस्करी पर वन विभाग के साथ मिलकर रोक लगाने का प्रयास करती है साथ ही जिलाधिकारी ने यह स्वीकार किया कि इस क्षेत्र में आने तथा जाने के कई और मार्ग हैं इन पर चैकिंग की व्यवस्था के लिए प्रदेश सरकार को प्रस्ताव बनाकर भेजा गया है, ताकि हर मार्ग पर इन कंकालों के साथ ही वन्य उपज की तस्करी को रोका जा सकेगा।
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