Wednesday, July 16, 2008

निजी शिक्षण संस्थान बने शिक्षा की दुकानें व शोरूम

निजी शिक्षण संस्थान बने शिक्षा की दुकानें व शोरूम

राजेन्द्र जोशी

देहरादून,  : उत्तराखण्ड में स्थापित निजी शिक्षण संस्थान भी देश के अन्य निजी संस्थानों की ही तर्ज पर शिक्षा की दुकान बन चुके हैं। यही कारण है कि आज यह स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि इन उच्च तथा व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों में यहां के गरीब तथा मध्यम वर्ग आय के छात्रों की जगह करोड़ पतियों तथा अरबपतियों की संतानें ही शिक्षा प्राप्त करने का माद्दा रखते हैं। शेष अन्य के लिए यहां कोई जगह नहीं है।

  आपके पास करोड़ों अथवा अरबों रूपया है तो अपने लाडले को किसी भी स्ट्रीम में व्यसायिक शिक्षा दिलाने के लिए चले आइये उत्तराखण्ड। यहां शिक्षा की दुकानें सजी हैं। जो किसी पंच सितारा होटल से कम नहीं है, ये वो शिक्षण संस्थान हैं जहां गरीब अथवा मध्यम वर्ग के छात्रों का प्रवेश तो सोचना दूर की कौंड़ी के समान है साथ ही ऐसे छात्रों के अविभावकों की इस ओर देखने तक की हिम्मत नहीं है। आपको याद होगा या आप लोगों ने कहीं पढ़ा होगा कि एक समय था जब गुरूकुल ही शिक्षा का मुख्य के ्रन्द्र हुआ करते थे। यहां राजा, महाराजाओं से लेकर रंक तक के बच्चे शिक्षा ग्रहण करने चले आया करते थे। यहां प्रवेश के लिए कोई मोटी फीस नहीं बल्कि उनका उद्देश्य बच्चों को अच्छी शिक्षा के साथ संस्कारों तक को देने का होता था। लेकिन उस समय भी एकलव्य एक अपवाद स्वरूप था। जिसने इन आश्रमों में ज्ञान अर्जित कर रहे छात्रों को पढ़ाने वाले शिक्षकों से चोरी छिपे शिक्षा ग्रहण की थी और वह अर्जुन से बड़ा धनुरधर बन गया था लेकिन अपने गुरू को गुरू दक्षिणा में उसने वह अगूंठा ही दे दिया जिससे वह बाण को प्रत्यचां पर चढ़ाता था। यह तो महाभारत काल की कहानी है।

 लेकिन आजकल उत्तराखण्ड में ऐसे शिक्षण संस्थानों की बाढ़ सी दिखाई दे रही है जो दान के नाम पर मोटी-मोटी रकमें एेंठ कर छात्रों को दिक्षा देने का दम्भ भरते हैं। लेकिन इस तरह की शिक्षा ग्रहण करने के बाद क्या वे इन छात्रों को वह नैतिकता का पाठ पढ़ाने में कामयाब हुए हैं जिसकी आज समाज को जरूरत हैं। कदापि नहीं बल्कि लाखों रूपये की रकम खर्च कर शिक्षण प्राप्त करने वाले इन छात्रों अथवा शिक्षा देने वाले इन शिक्षण संस्थानों ने ही जब नैतिकता को उखाड़ फेंक दिया हो तो यहां शिक्षा प्राप्त कर समाज की सेवा करने वालों से नैतिकतापूर्ण व्यवहार की सोचना अपने को ही बरगलाना है। क्योंकि इतने रूपये उन्होने नैतिकता अथवा सेवाभाव के लिए तो खर्च नहीं किए ये रूपए तो उनकी फिक्स डिपाजिट स्कीम के तहत जमा कराए गए रूपयों की तरह है। जिसका ?याज तो उन्हे ताउम्र खाना है, और  ?याजखोर की मानसिकता से तो हमारा समाज पहले से ही परिचित हैं उसके बारे में ज्यादा लिखना ठीक नहीं। 

   चलो यह तो था पुराना नया समाज का वह चेहरा जिसके अंग अब हम भी शायद बन चुके हैं। लेकिन उत्तराखण्ड में शिक्षा की खुल रही दुकानों में ही होड़ मची है। यहां इंजिनेयरिंग से लेकर मेडिकल तक की पढ़ाई की दुकानों तक में आजकल शिक्षा प्राप्त करने वाले ग्राहकों की भीड़ सजी है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए बोलियां लग रहीं है। ऐसे में ऐसे संस्थानों की चांदी ही नहीं कट रही बल्कि हीरा कट रहा है।  जेब में कितने रूपये हैं वैसी ही शिक्षा मिल सकती है। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार  बीटेक कम्प्यूटर साइंस से  करना है तो पांच से छह लाख, बीबीए करना है तो 50 हजार से एक लाख। इसी तरह एलएलबी, एमएल, बीसीए बीजे आदि के लिए भी अलग-अलग दरे निर्धारित हैं इस दर में सरकार द्वारा नियत की गई वार्षिक फीस शामिल नहीं है। जहां तक मेडिकल शिक्षा का मामला है यहां का ही सबसे ज्यादा बाजार भाव है और उस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। प्रदेश में दो मेडिकल कालेज है। जिनमें एमबीबीएस में प्रवेश के लिए 25 से 30 लाख रूपए का रेट चल रहा है जबकि एक मेडिकल कालेज में स्नातकोत्तर पाठयक्रम में सबसे ज्यादा बाजार भाव रेडियोलांजी का 50 से 60 लाख रूपया प्रवेश के लिए है। आर्थोपेडिक तथा गायनोकालाजी में विशेषज्ञता के लिए भी लगभग यही दर है। मेडिसिन तथा शल्य चिकित्सा में स्नातकोत्तर पाठयक्रम के लिए 45 से 55 लाख, आंख कान नाक व गले में विशेषज्ञता स्नातकोत्तर पाठयक्रम के लिए 40 से 45 लाख रूपए, नेत्र विज्ञान तथा बच्चा रोग विशेषज्ञता में स्नातकोत्तर पाठयक्रम के लिए  भी 40 से 50 लाख का बाजार भाव है।

  उच्च शिक्षा तथा व्यवसायिक शिक्षा के दिन ब दिन बढ़ते बाजार भाव से प्रदेश सरकार अनभिज्ञ नजर आ रही है  लेकिन देशभर में चल रहे इस शिक्षा के इस गोरख धन्घे पर  केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह जरूर चिंतित है। उनका भी मानना है कि देश के कुछ उच्च शिक्षा संस्थान शिक्षा की दुकानों में परिवर्तित हो चुके हैं और ये छात्रों को तो गुमराह कर ही रहे हैं ये अविभावकों की जेबों पर भी डाका डाल रहे हैं। उन्होने देश में शिक्षा के बिगड़ते वातावरण को बचाने की अपील की है।

 

 

1 comment:

Unknown said...

जी ऐसी "दुकाने" सभी जगह हैं जी, जहाँ अध्यापक बच्चों से डरते हैं और पालकों को नोट कमाने से ही फ़ुर्सत नहीं है, इन कॉलेज कैम्पस में खुलेआम सिगरेट, बीयर चलती है… बड़ा सवाल है कि कौन रोकेगा इसे?