राजेन्द्र जोशी
उत्तराखण्ड की जलविद्युत परियोजनाओं को निजी हाथों में देने का राज्य के बिजली कर्मचारी संगठन भले ही विरोध कर रहे हैं लेकिन इसके लिए कौन दोषी है इन्होने कभी नहीं सोचा। प्रदेश के मुख्यमंत्री भले ही कर्मचारियों के दबाव के कारण इनको निजी हाथों में देने के फैसले पर अभी निर्णय न किए जाने की बात कर रहे हैं लेकिन वास्तविकता तो यह है कि इन सभी परियोजनाओं को यहां कार्यरत अधिकारियों सहित कर्मचारियों ने दुधारू गाय की तरह उपयोग किया। राज्य की 22 जलविद्युत परियोजनाओं में से 18 परियोजनांए वर्तमान में खराब हालात से गुजर रही है। इसके लिए यहां कार्यरत अधिकारी तथा कर्मचारी सभी दोषी है जिन्होने इनको इस स्थिति में पहुंचाया है। यदि जलविद्यूत परियोजनाओं का निर्माण से अस्तित्व में आने तक के इतिहास पर गौर किया जाए तो शायद ही ऐसा कोई दिन होगा जिस दिन इन परियोजनाओं में से किसी एक भी परियोजना ने अपनी क्षमता के बराबर विद्युत का उत्पादन किया हो। इन तीस -पैतीस सालों तक परियोजना के कार्य देख रहे अभियंताओं ने इन परियोजनाओं को दुधारू गाय की तरह प्रयोग किया। लालू के चारे घोटाले की तरह कभी इन्होने नहरों के मरम्मत के नाम पर पैसे की बंदरबांट की तो कभी टरबाइन के मरम्मत के नाम पर। जानकार तो यहां तक बताते हैं कि इन सभी परियोजनाओं की रिपोर्ट का अध्ययन किया जाय तो पता चलता है कि रोज किसी न किसी परियोजना की विद्युत टरबाइन खराब ही मिलेगी, तो कभी नहरों की मरम्मत के कारध पूरी की पूरी परियोजना बंद मिलेगी। परियोजनाओं में व्याप्त भ्रष्टïाचार का ताजा उदाहरण मनेरी भाली फेस दो में साफ है। तो यहां भी किसी बड़े घोटाले से इंकार नहीं किया जा सकता है। इस परियोजना को बीते माह इसलिए बंद करना पड़ा था कि इसके चेनल में रेत इक ठ्ठïा हो गया था जिसके लिए अभी तक टेंडर नहीं हुए है जबकि आधिकारिक जानकारी के अनुसार यह प्रक्रिया में हैं। लेकिन अधिकारियों की जल्दबाजी का नमूना यहां तब देखने को मिला कि टेडर अभी हुए नहीं, यह भी पता नहीं कि कौन फर्म इस कार्य के लिए टेंडर डालेगी, किसके रेट न्यूनतम होंगे और किसे कार्य आबंटित ही किया जाएगा। लेकिन प्रक्रिया के पूरी होने से पहले ही दिल्ली की एक कम्पनी की मशीनें यहां तक पहुंच चुकी हैं। इसका साफ मतलब है कि विभागीय अधिकारी तथा कर्मचारियों की मिली भगत हो चुकी है तथा टेंडर डाले जाने से पहले ही तय हो चुका है कि किसे कार्य आवंटित किया जाना है। यह तो एक बानगी है राज्य की अन्य तमाम जलविद्युत परियोजनाओं के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। चीला जलविद्युत परियोजना का मामला एक बार सन् 1998 में तब उठा था जब इस परियोजना के बैराज पर लगने वाले वेयरिंग को बाजार भाव से हजारों रूपए ज्यादा में खरीद किया गया। इस मामले में जांच की गयी थी तो पता चला था कि जो वेयरिंग इन बैराज के गेटों को खोलने तथा बंद करने में प्रयोग किए जा रहे थे वे सामान्य एसकेफ कम्पनी के थे और जिनकी कीमत बाजार में मात्र 13 सौ रूपये प्रति नग थी लेकिन विभागीय अधिकारी तथा कर्मचारियों की मिलीभगत से ये बेयरिंग 13 हजार रूपए प्रति नग की दर से दिल्ली की किसी फर्म से खरीदे जा रहे थे। प्रदेश के बुद्घिजीवी लोगों का कहना है कि इसी तरह से जेब भरने की प्रवृति ने इन जल विद्युत परियोजनाओं का आज इस मुकाम तक पहुंचा दिया है कि सरकार को भी अब इन पर खर्च करने में सोचना पड़ रहा है। अधिकारी तथा कर्मचारी अपनी कमाई बंद होती देख सरकार के खिलाफ ही लामबंद होते नजर आ रहे हैं लेकिन वे इस पर जरा भी नहीं सोच रहे हैं कि आखिर इन परियोजनाओं को इस मुकाम तक पहुंचाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उन्हे आत्म चिंतन करने की जरूरत है कि आखिर सरकार अब यदि इन पर पैसा खर्च करेगी तो वह भी इन्ही की जेबों से ही जाएगा। समय पर यदि इन्होने इन परियोजनाओं के साथ ईमानदारी की होती तो आज इस तरह के कदम उठाने की जरूरत न होती। और राज्य वासियों को सस्ती बिजली मिलती।
1 comment:
इसी ईमानदारी का तो टोटा है हमारे देश में।
काश, कुछ प्रतिशत ही लोगों में आ जाए.....
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